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________________ २४६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम _ 'गुरुवर ! हमारी यह आत्मा अनन्त काल से भवसागर में उन्मज्जननिमज्जन कर रही है। उसका उद्धार कर शीघ्र ही मोक्षपद पाने के लिए हमने ऐहिक आनन्द तथा दुःख के मूल क्षणिक सुख को छोड़कर संयम का आश्रय लिया था।' ५. संस्पृष्टा नो वयमनुमितेः किन्तु सत्च्छ्द्ध नाभिमिथ्यामार्गः स्खलितचरणा नष्टनष्टाः सुमार्गात् । तस्मात् त्यक्त्वाऽभ्युपगतहठं साम्प्रतं साम्प्रतं यं, सत्यं शुभं शिवपुरपथं संश्रयामः शिवार्थम् ॥ “संयम का संस्पर्श तो दूर, सत्श्रद्धान् ने भी हमारा स्पर्श नहीं किया है, ऐसा अनुमान होता है। मिथ्यामार्ग पर चलने के कारण हमारे चरण सुमार्ग से स्खलित हो गए हैं और हम संयम से भ्रष्ट व्यक्तियों द्वारा स्ययं भी नष्ट हो गए हैं। इसलिए अब हमें इस स्वीकृत दुराग्रह को छोड़कर, स्वकल्याण के लिए सत्य एवं शुभ्र शिवपथ का ही अनुसरण करना चाहिए।' ६. विद्वान्सस्ते चतुरचतुरा धोधनाढयषु मुख्याः, स्वात्मोद्धृत्यै विगलितमदाः सत्यमन्वेष्टुमुत्काः । लब्धे तस्मिस्तदनुसरणे पक्षपातातिरिक्ताः, सज्जाः प्राज्यं त्वरिततरणाकाक्षिणः कापथान्ताः ॥ ___ 'वे ही वास्तव में विचक्षण विद्वान् और प्रकाण्ड बुद्धि संपन्न हैं जो अपने आत्मोद्धार के लिए अहंकारशून्य होकर सत्य की अन्वेषणा में उत्कंठित, सत्य की उपलब्धि हो जाने पर उसकी अनुपालना में पक्षपातशून्य तथा कुमार्ग का अन्त कर, अत्यधिक सज्जित होकर शीघ्र ही संसार समुद्र से तैरने की आकांक्षा रखते हैं।' ७. सूत्राणां श्रद्दधतु सुतरां सत्यवाक्यानि शश्वद्, यस्मात् सर्वा भवति सफला सत्क्रिया निष्क्रियारे। मिथ्या श्रद्धा जिनवरवचः श्रद्धयाऽभिप्रमाय, हेया हेया मुकुरमणिवद् रत्नकामैरिवार्यः । 'हम आगमों की सत्यवाणी पर पूर्ण श्रद्धा रखें, जिससे हमारी सारीसक्रिया मोक्ष प्राप्ति में सहयोगी बने। आप्तोपदेश की श्रद्धा से निर्णीत मिथ्याश्रद्धा वैसे ही हेय होती है जैसे रत्नमणि को पाने के इच्छुक के लिए काचमणि हेय होती है।'
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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