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________________ नवमः सर्गः १. सत्प्रस्तावं नयनविषयीकृत्य कामैकवीरो, वार्तालापं लपनकुशलस्तैः समं प्रारिरिप्सुः। अप्रारब्धं भवति हि कथं कार्यमुद्योगसाध्यं, प्राप्त केनाभिलषितफलं केवलं कल्पनाभिः॥ उस कर्मवीर वाक्कुशल भिक्षु ने सुअवसर देख संघपति के साथ वार्तालाप प्रारम्भ कर दिया। जो कार्य पुरुषार्थ-साध्य है, उसके लिए पुरुषार्थ किए बिना वह सिद्ध कैसे होगा ? क्या किसी ने केवल कल्पनाओं से अपने अभिलषित फल को प्राप्त किया है ? २. कः सङ्कोचः प्रकृतकरणे न्यायपक्षान्वितानां, कालक्षेपैरलमलमहो धीमतां धीधनानाम् । अद्य श्वो वा किमिति करणे लब्धवेलाभिलामे, कर्तव्यं स्यादतिशयबलात्तद्धि कर्तव्यमेव ॥ __ अपना कार्य करने के लिए न्यायावलंबी व्यक्ति को कैसा संकोच ? बुद्धिमान् व्यक्तियों के लिए कालक्षेप करना उचित नहीं होता। अवसर प्राप्त हो जाने पर 'आज या कल', 'आज या कल' क्यों किया जाए ? जो करना है, उसको प्रबल शक्ति से कर ही लेना चाहिए। . ३. द्रव्याचार्य मुकुलितकरो नम्रमौलिप्रदेशो, व्याजहऽसौ गुरुवर ! वरा श्रूयतां मेऽद्य वाणी। आनन्दार्थं न च न च मनाग् जाठराग्निप्रशान्त्य, सन्तो जाताः खलु वयमिमे त्यक्तगेहाधिवासाः ॥ ऐसा सोचकर मुनि भिक्षु आचार्य रघुनाथजी के पास आए और बद्धांजलि हो सिर झुकाकर बोले--- 'पूज्य गुरुवर ! आज आप मेरी बात सुनें। हम सभी गृहवास को छोडकर केवल पेट भरने के लिए अथवा आमोदप्रमोद के लिए मुनि नहीं बने हैं।' ४. यत्स्वात्मानं भवजलनिधौ मज्जनोन्मज्जनानि, तन्वन्तं तारयितुमचिरान् मोक्षधामाधिरोढुम् । ऐह्यानन्दं क्षणिकसुखदं दुःखमूलानुकूलं, . त्यक्त्वा सन्तो यदुपशमतामासिवांसो वयं च ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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