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वयम्
राजनगर चातुर्मास संपन्न कर मुनि भिक्षु आचार्य रघुनाथजी के पास आ गए । अनेक बार तात्त्विक चर्चाएं हुईं। आचार्यजी अपने अभिमत पक्ष से तनिक भी नहीं हटे । मुनि भिक्षु ने दया, दान आदि विषयक आगमिक मान्यताओं से सम्बन्धित चर्चाएं की। परन्तु वे उन्हें मानने के लिए उद्यत नहीं हुए। परिणामतः मुनि भिक्षु वि० सं० १८१७ में चैत्र शुक्ला नवमी को बगड़ी नगर में आचार्य रघुनाथजी के संप्रदाय से विलग हो गए। प्रथम प्रवास श्मशान में स्थित ठाकुर जेतसिंहजी की छत्री में हुआ। आचार्यजी वहां उन्हें समझाने आए। पर व्यर्थ । उन्होंने विरोध का बवंडर खड़ा किया। मुनि भिक्षु सभी प्रकार के विरोधों को सहते हुए अपने गन्तव्य पर अग्रसर होते रहे । आचार्य जयमलजी ने मुनि भिक्षु की क्रान्ति को सराहा । वे उनके विचारों से पूर्णतः सहमत हो गए और उन्होंने उनके साथ रहने का निश्चय कर लिया। परन्तु आचार्य रघुनाथजी उन्हें बहकाकर अपने पक्ष में रखने में सफल हो गए। आचार्य जयमलजी ने अन्ततः मुनि भिक्ष को उनके साहसिक उपक्रम पर आशीर्वाद देते हुए उस क्रान्ति की सफलता की कामना की।