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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
. . 'उनकी आकांक्षा उनके पास थी, किन्तु सिद्धान्तत: उन्होंने उचित नहीं किया । अब कौन उनको आगमानुसारी चलने का निवेदन करे ? आज यह महान् विमर्श समुपस्थित हो गया है ।' ७३. इयद् यदा स्वात्मसु दुर्बलाबलं, कथं तदानीं कृतवांस्तथाविधम् । उपक्रमात् सत्यतमात् सचेतनः, पराङ्मुखः स्यात् किमु कोपि जीवितः ॥
'यदि अपने आपमें इतनी दुर्बलता थी तो फिर उन्होंने ऐसा कदम क्यों उठाया ? क्या कोई जीवित और सचेतन साधक सत्य के उपक्रम से पराङ्मुख हो सकता है ?' ७४. परेश्वरः प्रार्थ्यत एव सोऽधुना, प्रभो ! प्रदेया प्रतिभा पुनः शुभा। ततः स भिक्षुश्च दलत्तलादरं, समुद्ध तौ नः प्रभवेत् समाधिना ॥
'अब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं-प्रभो! आप भिक्षु को पुनः सद्बुद्धि दें, जिससे वे संघगत विशेष आदर की उपेक्षा कर हमारा उद्धार करने में सहज समर्थ हों।' ७५. कृतं न जैनं सुकृतं च रक्षितं, क्रियासु काश्यं तदिदं फलं च । अनल्पसङ्कल्पविकल्पतल्पगैर्जनस्तदेत्थं प्रवितकितं स्यात् ॥
उस समय लोग संकल्प-विकल्प के जाल में अत्यधिक फंस गए। उन्होंने सोचा, हमने जैन धर्म की यथार्थ आराधना नहीं की और सत्क्रियाओं के करने में कृपणता बरती । उसी का यह परिणाम है। ७६. न तं विना कोपि विभुर्यथार्थताप्रकाशने जैनजगज्जनान्तरे। प्रभाकरात् को जलजानि भासितुमधीश्वरः स्याद् भुवनत्रिकेपि च ॥
'मुनि भिक्षु के बिना. कोई भी दूसरा व्यक्ति जन जगत् की जनता के बीच यथार्थता को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं है। क्या तीनों लोकों में सूर्य के बिना ऐसा कोई अन्य ग्रह है जो कमलों को विकसित करने में समर्थ हो ?'
७७. विवञ्चितो वञ्चनताविदग्धकः, कटाक्षितो वा कुविधेः कटाक्षकः। कलाकुलराकलितो यथा तथा, रहस्यमेतन्न कलेत कोपि वा ॥
लोगों ने सोचा-'क्या भिक्षु निपुण वंचकों के द्वारा ठगे गए हैं ? अथवा क्या कुभाग्य की टेढी-मेढी नजरों से देखे गए हैं ? अथवा कला-निपुण व्यक्तियों द्वारा जैसे-तैसे फंसाए गए हैं ?' यह रहस्य कोई नहीं जानता।'..