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अष्टमः सर्गः
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'क्या मुनि भिक्षु ऊंचा मुंह किए हुए अपने सहायकों को ही नीचा दिखाने के लिए तथा मस्तिष्क के उत्तम आभूषण की उपमा वाले अपने जीवनदायी तत्त्वों को जानते हुए भी, ध्वंस करने के लिए प्रवृत्त हुए हैं ? '
६८. यदीयमाहात्म्ययशोविलासतः, प्रसादिनः किं रचितुं विषादिनः । निरन्तरोन्मीलितलोचनाम्बुजैः, दिदृक्षुभक्ताक्षिकजं निमीलितुम् ॥
'जिनके माहात्म्य और यशोविलास से जो प्रसन्न रहते थे, क्या उनको विषादग्रस्त करने के लिए अथवा जो निरन्तर खुली आंखों से जिनको निहारते थे, उन भक्तजनों की आंखों को निमीलित करने के लिए उन्होंने वैसा किया ? '
६९. शुभाशिषां यस्य यदा समर्पिणः, सुधामुधाकारगुणाभिगायिनः । यदेकनामापमृतोपजीविनो, विधातुमौदास्यपरान् परायणः ॥
'सभी भक्तजन इनके प्रति समर्पित थे । वे अमृत को भी व्यर्थ करने वाले इनके गुणों का अभिगान करने में रस लेते थे । वे इनके एक नाम पर मरने - जीने वाले थे । क्या मुनि भिक्षु इन सबको उदासीन करने 'तत्पर हुए हैं ? '
७०. धर्मिष्ठधर्मं प्रियधर्मधारकान् नरान्निरानन्दयितुं ततोऽपरान् । महाश्लथाचारविचारचारता, समुच्छ्रितान् नन्दयितुं समुद्यतः ॥
'धर्मिष्ठ, धर्मप्रिय और धर्मधारक व्यक्तियों को तथा महान् शिथिल आचार और विचार से ऊपर उठकर जो आचार-विचार का पालन करते थे उनको मुनि भिक्षु आनन्दित करने के लिए समुद्यत थे । परंतु इनसे विपरीत व्यक्तियों के लिए वे आनन्ददायी नहीं थे ।'
७१. अलौकिक कौतुककोटरान्तरे, प्रवेश्य हा ! ऽस्मानपरान् विनोदयन् । सुधर्म विध्वंसकगच्छगह्वरे, विवेश संवेशवशेन वा पुनः ॥
'अलौकिक कुतूहल के कोटर में हमें प्रविष्ट करा कर वे हमारा और दूसरों का विनोद कर रहे हैं। वे अब सुषुप्त होकर सुधर्म विध्वंसक गच्छ के विवर में पुन: कैसे प्रवेश कर गए ?'
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७२. तदीयकाङ्क्षाऽथ तदीयसन्निधौ न किन्तु कान्तं कलितं कृतान्ततः । निवेद्यते कः क्रियते श्रुतानुगो महान् विमर्शः समुपस्थितोऽयम् ॥