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________________ अष्टमः सर्गः २४१ ७८. कदाचिदस्मासु सुदैवयोगतो, भवेत् सुपुण्या परमेश्वरीकृपा। तदा समुद्विज्य तदीयशैथिलात्, समुत्तरेत् सत्यरणाङ्गणे पुनः॥ कदाचित् हमारे सौभाग्य से, परमेश्वर की परम कृपा से यह सुयोग मिल जाए कि वे अपने शैथिल्य को दूर कर, सत्य के रणाङ्गण में पुनः उतर आएं। ७९. प्रविष्टवान् किञ्चिदचिन्त्यकारणात्, परं न तिष्ठासुरसौ चिरन्तनः । बकोट वारं गमितोऽपि किं वसेत्, स राजहंसो विहगावतंसितः ॥ वे किसी अचिन्त्य कारण के वशीभूत होकर उस गण में प्रविष्ट हुए हैं, पर वे वहां अधिक समय तक नहीं रह पायेंगे। क्या पक्षिराज राजहंस भाग्यवश बगुलों के समूह में चले जाने पर भी वहां रह सकता ८०. अलं क्षताचारमुनीश्वरैरलं, गुरुश्च्युतः स्यात् कुगुरुः सृतं च तैः) ___ अखाद्यपेये रसिको भवेच्च किं, निरन्नपानः क्षुधितः पिपासितः॥ दूषित आचार वाले मुनियों से हमें क्या ? मार्गच्युत गुरु से क्या ? उनसे भी क्या लेना-देना जो कुगुरु का आश्रयण ले रहे हैं ? क्या भूखा-प्यासा सभ्य व्यक्ति उत्तम भोज्य और पेय पदार्थों के अभाव में अखाद्य और अय पदार्थों का उपभोग करेगा ? ८१. ततो न यावत् सुगुरुमिलेदिव, नरान्तरीपान्तरवर्त्यणुवती। गृहे स्थिता एव वयं च साम्प्रतं, जिनेन्द्रधर्म प्रविधित्सवः स्वयम् ॥ इसलिए जब तक सुगुरु का संयोग नहीं मिलता, तब तक अढाई द्वीप के बहिर्वर्ती तिर्यञ्च अणुव्रतियों की भांति हम अपने घर में रहते हुए स्वयं जिनधर्म का पालन करने के इच्छुक हैं । श्रीनाभेयजिनेन्द्रकारमकरोद् धर्मप्रतिष्ठां पुनर्, ___ यः सत्याग्रहणाग्रहीसहनयराचार्य भिक्षुर्महान् । तत्सिद्धान्तरतेन चाररचिते श्रीनत्थमल्लर्षिणा, श्रीमभिक्षुमुनीश्वरस्य चरिते सर्गोऽजनिष्टाष्टमः ॥ श्रीनथमल्लर्षिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये भिक्षोः राजनगरश्रावक-समाधानगुरुसमीपागमन-विचारविमर्शनामा अष्टमः सर्गः। १. बकोट:-बगुला (बके कहो बकोटवत्-अभि० ४।३९८) २. वार:-समूह (संघाते प्रकरौघवार'-अभि० ६।४७)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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