SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमः सर्गः . २३५ ४४. सरोषणे रोषविशेषकारको, न कार्यनिष्पत्तिकरः कदाचन । .. दवानलं शुष्कसुरूक्षकेन्धननिधायकः किं शमयेत् कथञ्चन ॥ क्रोधी के प्रति क्रोध करने वाला मनुष्य कभी भी अपनी कार्यसिद्धि नहीं कर पाता । क्या दावानल शुष्क वृक्ष के इंधन से कभी शान्त हो सकता है ? ४५. समनसामग्रययुतेऽपि मानवे, क्रमज्ञताप्यत्र महोपयोगिनी । क्रमज्ञताहीनतरः स एव च, पदे पदे निष्फलतामशिश्रयत् ॥ समग्र सामग्री से संपन्न मनुष्य के लिए भी क्रमज्ञ-क्रम को जानने वाला होना बहुत उपयोगी है । जो क्रम को नहीं जानता उसे पग-पग पर असफलता ही प्राप्त होती है। ४६. कठोरकर्मातिकठोरकर्मणि, क्षणं विना मा कुरुतात् मनागपि। समाधिना स्थेयमतीवसुन्दरं, क्षणे प्रवीणो हि महाप्रवीणकः॥ कठिन से भी कठिन कार्य क्यों न हो, अवसर के बिना उसका प्रारंभ कभी नहीं करना चाहिये। उस समय तो समाधि में स्थिर रहना ही सुन्दर है । जो अवसर को जानने में प्रवीण है वही महाप्रवीण है। ४७. अत्युत्सुकत्वं नहि कार्यसाधकं, निरुत्सुकत्वं ह्यपि हेयलक्षणम् । ततः समोवसरो वशेऽनिशं, शुभे समेते समये स्वतोऽर्थवान् । अति उत्सुकता से भी कार्य की सिद्धि नहीं होती और निरुत्सुकता भी हेय है। इसीलिये समय को ही अपने वश में करना चाहिए। शुभ समय के आने पर स्वत: कार्यसिद्धि हो जाती है। ४८. अयं तु कृत्स्नासु कलासु कोविदः, पटुप्रकारः प्रकृतं न्यवीवदत् । निरर्थकाश्चेन्मम संशया इमे, ततः प्रमाणैः प्रणिरूपयन्तु तान् ।। सभी कलाओं में निपुण मुनि भिक्षु महान् समयज्ञ थे, इसीलिये उन्होंने समय को पहचान कर अपने चातुर्य से पुनः गुरु को निवेदन किया-- 'भंते ! यदि आपकी दृष्टि में मेरे ये संशय निरर्थक हैं, तो शास्त्रीय-प्रमाणों से उन शंकाओं का समाधान करें।' ४९. पुनः स्वचित्ते चतुरत्वचक्रिणा, व्यचिन्ति तावद् बहुलाभलिप्सया।। अमीषु चास्मासु न संयमोऽधुना, न चापि सम्यक्त्वसुसौरभं मनाम् ॥ ५०. अतो हठेनालमकालिकेन नो, महाफलेच्छुव्यवसायिनामिव । ततोऽद्य केनापि यथार्थवर्मना, प्रतीतिमस्मै प्रतिपत्तुमाकले ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy