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________________ २३४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३८. उदन्त आवेदित एव दृश्यते, मत्तः पुरस्तादनुगामिना मम । विपर्ययाऽमुष्य विगूढपद्धतिस्ततोनुयुजे प्रशमप्रसङ्गतः॥ उन्होंने सोचा-मेरे अनुगामी मुनि वीरभाणजी ने मेरे पहुंचने से पूर्व ही सारा वृत्तान्त कह दिया, ऐसा प्रतीत हो रहा है। गुरु की चित्तवृत्ति विपरीत हो चुकी है । मुझे अब शान्त चित्त से पूछना चाहिए। ३९. कृताञ्जलिः प्राञ्जलिकोऽन्वयोजयत्, प्रभो ! विलक्षः कथमित्थमादिश । व्युदासचित्तस्य किमस्ति कारणमदात् कथं नो मम मस्तके करम् ॥ तब मुनि भिक्षु ने हाथ जोड़कर गुरुदेव से पूछा--'प्रभो ! आज आप का चित्त असाधारण क्यों है ? इतना उदास क्यों है ? आपने मेरे सिर पर अपना वरदहस्त नहीं रखा, इसका क्या कारण है ?' ४०. तदाऽभ्यधाद् गच्छधुरन्धरस्तकं, विलोमलोमा च विलोमलोचनः। अहो ! तवान्तःकरणेप्युपासते, विशालशङ्का अविकिताः किमु ॥ तब गच्छाधिपति आचार्य रघुनाथजी ने टेढी नगर से भिक्षु को देखते हुए प्रतिकूल होकर बोले-'अहो ! तुम्हारे अन्तःकरण में भी अनेक शंकाएं हैं, यह तो मैं कल्पना भी नहीं करता था।' ४१. मदर्थसिद्धयं प्रति शिष्टवानहं, विनाशितं प्रत्युत कार्यजातम् । ततो मनो मे स्फटितं त्वया समं, भवेन्न ते मे मिलनं च चेतसोः॥ __... "मैंने अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए तुमको वहां भेजा था, परंतु तुमने तो कार्य ही बिगाड़ डाला। इसीलिए मेरा मन तुम्हारे से फट चुका है । अब तुम्हारा और मेरा मन मिल नहीं सकता।' ४२. पुनस्तथा नावशनाम्बुमिश्रणं, न विद्यते त्वं शृणु नव्यकोविद ! विभीषिकामेवमशिष्टवर्मना, प्रदर्श्य सोऽस्थादभियोगभीषणः ।। . 'हे नए ज्ञानी ! और भी तुम सुनो। अब तुम्हारा हमारे साथ आहार-पानी का संभोग भी नहीं रह सकेगा।' इस प्रकार अवांछनीय विभीषिका दिखाते हुए, आक्षेप करते हुए, आचार्य रघुनाथजी अपने आपमें भीषण बन गए। ४३. तदा स्वयं द्रव्यगुरोरगौरव, निरीक्ष्य चुक्षोभ न भिक्षुरक्षरः। गभीरिमाधःकृतशेषनीरधिः स किं स्वयम्भूरमणोन्धिरस्थिरः॥ . तब मुनि भिक्षु अपने गुरु द्वारा किये गये असम्मान को देखकर किंचित् भी कुपित एवं क्षुब्ध नहीं हुए। क्या कभी अपनी गभीरिमा से अन्यान्य समुद्रों को जीतने वाला स्वयम्भूरमण समुद्र क्षुब्ध हो सकता है ?
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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