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अष्टमः सर्गः
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'इस विशाल नाटक के रंगमंच पर मैंने प्रलंब 'पोल' के आवरण को हटाने रूप प्रारंभ का उपोद्घात ही प्रस्तुत किया है। मुनि भिक्षु ही सांगोपांग नाटक दिखायेंगे ।'
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३३. प्रवृत्तिरेषा निखिला त्वनाकुला, तदागते ज्ञास्यत एव विस्तृतम् । स्वमानसेऽमाततयेत्थमूचिवान्, समस्तवृत्तं स च वीरभाणकः ॥ मुनि वीरभाणजी बात को पचा नहीं सके । उन्होंने अथ से इति तक सारा वृत्तान्त बताते हुए अन्त में कहा - ' गुरुदेव ! मुनि भिक्षु के आने पर ही आप इस विषय का समूचा वृत्तान्त सहजरूप से जान पायेंगे । '
३४. अपेशलैस्तादृशवाचिकैस्तदा, गणाधिपः सोऽस्मितवक्त्रपङ्कजः । महाहिमान्योत्पलवन्मलीमसो, बभूविवान् किंकरणीयमूढकः ॥
ऐसे अमनोज्ञ समाचारों से श्री रघुनाथजी का मुख-कमल वैसे ही मुरझा गया, जैसे अति हिमपात से कमल मुरझा जाता है । अब वे किकर्त्तव्यविमूढ हो गए ।
३५. अथ क्रमात्तद्घटनान्तरेण स समागमद् भिक्षुरनन्यमानसः । अनीनमद् बद्धकराब्जकुड्मलो, गुरुं गरीयस्तमगौरवोच्छ्रितः ॥
इस घटना के बाद ग्रामानुग्राम विहार करते-करते स्वच्छमना मुनिभिक्षु सोजत पहुंचे । उन्होंने करबद्ध होकर अत्यन्त विनयपूर्वक महान् गुरु को वंदना की ।
३६. परन्तु पाणिर्व्यतरन्न मूर्धनि, चुकोप कोपारुणशोणिताननः । कुरंगचित्तेन विचित्रचित्रलो, विलोकते तं स कुरङ्गचक्षुषा ॥
मुनिभिक्षु को देखते ही रघुनाथजी का क्रोध उभर आया । उनका मुंह लाल हो गया । उन्होंने भिक्षु के शिर पर हाथ नहीं रखा। उनका चित्त विचारों के उतार-चढाव से चंचल हो गया और वे विचित्र भावभंगिमा से भिक्षु को देखने लगे ।
३७.
अबोधि तत्कालमतन्द्रचन्द्रमा,
अनुक्ततद्गोचरगो पुरान्तरम् । मनीषिणामिङ्गितमेव पुष्कलं तदा स भिक्षुर्व्य चिचिन्तयत् पुनः ॥
गुरु की भ्रूभंगिमा को देखकर परम पुरुषार्थी और अवसरज्ञ मुनि भिक्षु ने बिना कहे ही उनके भावों को भांप लिया और विचारमग्न हो गए। मनीषी व्यक्ति के लिए तो संकेत ही पर्याप्त होता है ।