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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
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२७. विवेकिनस्ते मुनिपर्युपासका, लपन्ति तथ्यं श्रुभयोगिराजवत् । अलीकमालिन्यकलङ्ककालिमा, न तत्र वाण्यां लवलेशमात्रिकः ॥
'गुरुदेव ! वे राजनगरवासी श्रावक विवेकी हैं एवं विशिष्ट योगीराज की तरह सत्यवादी हैं । उनकी वाणी में मिथ्यामालिन्य की कलंक - कालिमा का तो लवलेश भी नहीं है ।'
२८. वयं मृषा पोल्लपथप्रचारका, यथार्थतासत्कथनापवारकाः । हरिद्विमूढा हिरणा इवोच्चकैर्नयैकपद्या श्रमिता भ्रमाकुलाः ॥
'हम झूठे हैं । हम शिथिल आचार का प्रचार करने वाले हैं तथा यथार्थ को ढांकने वाले हैं । जैसे दिग्विमूढ मृग इधर-उधर भागते हैं वैसे ही हम भी भ्रमाकुल होते हुए न्याय मार्ग से इधर-उधर भटक रहे हैं ।'
२९. वयं हि मिथ्येति निशम्य कर्णयोस्त्रिशूलतुल्यं स्वमनोऽमनोरमम् । तंदा गुरुर्ब्रव्य उवाद सादिवत् किमित्थमाख्यासि ह वीरभाणक ! ॥
मुनि वीरभाणजी के मुख से, कानों में त्रिशूल तुल्य और अमनोज्ञ लगने वाले 'हम झूठे हैं' ऐसे शब्दों को सुनकर रघुनाथजी नियंता की भांति बोले – 'वीरभाण ! ऐसे क्या कह रहा है ? '
३०. अवक् गुरो ! ऽहं कथयामि सूनृतं यथा प्रवृत्तं मम चाक्षुषं तथा । न दृष्टमात्रेण हि किन्तु केवलं स्वपण्डया स्वानुभवेन सम्मतम् ॥
मुनि वीरभाणजी बोले – 'गुरुवर्य ! जो कुछ मेरी आंखों के सामने घटित हुआ है, वही मैंने कहा है । केवल देखने मात्र से ही नहीं, किंतु अपनी बुद्धि एवं अनुभव के आधार पर कह रहा हूं ।'
३१. ममोपकण्ठे तु तद्वंशमात्रकं तत्संनिधौ ब्राह्मविशालपुस्तकम् ।
मया त्वियं किञ्चन पञ्जिका कृता, महान् महाभाष्यकरस्तु सैव हि ॥
"प्रभो ! मेरे पास तो एक अंश मात्र ही है, ब्रह्माजी का विशाल पोथा तो उनके पास है । मैं तो इस विषय की पञ्जिका मात्र हूं, पर महान् भाष्यकार तो मुनि भीखणजी ही हैं ।'
३२. प्रलम्बपौल्लावरणापसारण विशालतौर्यत्रिक' रङ्गमञ्चके 1 अहं ह्य पोद्घातकरोऽयमादिमः, स साङ्गपूर्णाभिनयाभिदर्शकः ॥
१. तौर्यत्रिकं - - गीत, नृत्य और वाद्य — इन तीनों से युक्त नाट्य (गीतनृत्यवाद्यत्रयं नाटय़ तौर्यत्रिकञ्च तत् -- अभि० २।१९३)