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________________ अष्टमः सर्गः . . . २३१ 'गुरुदेव ! मुनियों के उद्देश्य से बनाये गये स्थानक, भोजन एवं उपधि का हम प्रसन्न चित्त से सर्वभक्षी अग्नि की भांति उपयोग करते हैं, कुछ भी नहीं छोड़ते।' २२. सदैकगेहादऽशनं च पानकं, निपातुमत्तुं प्रतिगृह्यते च यत् । __ निगद्यते तत् खलु नित्यपिण्डकमकारणं तद् गृहयाम आयतम् ॥ 'हम सदा एक घर से अशन-पान, खाने-पीने के लिए ग्रहण करते हैं। ऐसे आहार को शास्त्रों में नित्यपिंड माना है। हम बिना कारण ही उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं।' २३. पतद्ग्रहाच्छादपरिच्छदादिकावधेर्नु तृष्णातुरवद् विभञ्जकाः। ... प्रसद्य सद्यष्कविशिष्टवस्तुनो, ग्रहे प्रवृत्ताः सुविधाधनाः स्वयम् ॥ 'पात्र एवं ओढने-पहनने के कपड़े तथा परदे आदि की मर्यादा को लोभी व्यक्ति की भांति तोड़ते जा रहे हैं और प्रसन्नतापूर्वक नई एवं विशिष्ट वस्तु को ग्रहण करने के लिए तत्पर रहते हैं । हम केवल सुविधावादी बन बैठे हैं।' २४. विना नियोगादभिभावुकाथिनां, विनेयलोभात् परिवारगृध्नुवत् । अपीह यान् कांस्तनुमश्च दीक्षितान्, विवेकवैकल्यपरापरीक्षितान् ॥ ... ___ 'परिवार की वृद्धि करने में आसक्त व्यक्ति की भांति हम' शिष्यों के लोभ से अभिभावकों की आज्ञा के बिना ही विवेक-विकल' व्यक्तियों को उनकी योग्यता की परीक्षा किए बिना ही जैसे-तैसे दीक्षित कर लेते हैं।' २५. विहिसया क्रूरतमःकटाक्षिताः, दिवानिशं द्वारकपाटपाटकाः ।। ‘ब्रवीमि किं किं बहुदोषकोशिनो, वयं चरित्रैः पतिताः सुनिश्चितम् ॥ 'क्रूर पापों के कटाक्ष से देखे जाते हुए हम हिंसा करते हैं, रात-दिन कपाट खोलते-बंद करते हैं। क्या-क्या बताऊं ? हम दोषों के भंडार हैं और निश्चय ही हम चारित्र से गिर चुके हैं।' २६. न केवलं तत् परिसेवनेन ही, पर्याप्तभावः किल किन्तु कूटतः। । ___ तदीयसंस्थापनमौचिती पुनः, प्रकृत्य नैजोद्भटतानिदर्शिनः ॥.. हम केवल उन दोषों का सेवन ही नहीं करते किन्तु कपटपूर्वक उन दोषों के औचित्य की स्थापना कर अपनी उद्भटता दिखाते हैं । .....
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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