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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ५१. ततः प्रयासः प्रतिबोध्य मेधया, निनीषुरेतं निगमे नयोज्ज्वले । तदेत्थमन्तःकरणे कृपाकुले, विमृश्य तद्रव्यगुरुं जजल्पिवान् ॥
. (त्रिभिविशेषकम्) उन चतुर-शिरोमणि मुनि भिक्षु ने बहुलाभ की इच्छा से ऐसा विचार किया-वर्तमान में इन गुरु में और हम सन्तों में न तो चारित्र है और न सम्यक्त्व की सौरभ ही है।
इसीलिये यह असामयिक हठ भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि व्यवसायी की तरह मैं भी महान् फल-लाभ का इच्छुक हूं, इसलिए कोई यथार्थ विधि से गुरु को प्रतीति उत्पन्न करने की मैं कोशिश करूं ।
मैं अपनी मेधा से प्रयास कर गुरुदेव को समझाऊंगा और उन्हें न्याय-मार्ग पर लाने का प्रयत्न करूंगा। अपने करुणार्द्र हृदय में ऐसा विचार कर मुनि भिक्षु गुरु रघुनाथजी से बोले५२. मृषा सशङ्क यदि मां व्यलोकयेत्, तदा द्रुतं दण्डयितुं प्रशक्नुयात् ।
प्रतीतिमेवं समुपायं तैरमा, चकार चाहारविहारभोजनम् ॥ ____ 'यदि आप मानते हैं कि मैं निरर्थक ही सशंक हुआ हूं तो आप मुझे दंड दे सकते हैं।' इन वचनों से प्रतीति उत्पन्न कर मुनि भिक्षु ने उनके साथ पुनः आहार-पानी का सम्भोग जोड़ लिया। ५३. गुरुं प्रबोद्धं सहसंचविष्टपं, पुनः समुद्धर्तुमनन्तसंसृतेः ।
कियत्समुत्कण्ठितमस्य मानसं, विदन्ति विद्यावधिपारगामिनः॥ ___अपने गुरु को एवं ससंघ संसार को प्रबुद्ध करने के लिए तथा उसका अनन्त संसार से पुनरुद्धार करने के लिए मुनि भिक्षु का अन्तर्मानस कितना उत्कंठित था, यह तो सर्वज्ञ ही जान सकते हैं ?
५४. निजाथसंसाधकजन्तुजातै ता त्रिलोकी परितोवलोक्यते । ____ क्व चेदृशः किन्तु परार्थसाधकः, प्रियङ्करोऽन्यो वसुधासुधाकरः॥
- अपनी स्वार्थसिद्धि करने वाले साधकों से ये तीनों लोक भरे हुए दिखाई देते हैं। परंतु कहां हैं मुनि भिक्षु जैसे दूसरे परार्थसाधक साधक जो वसुधा पर चन्द्रमा की भांति प्रियंकर हों ? ५५. भवेद् यदास्मिन् पृथकीयभावना, स्वनामगच्छोद्भवकीत्तिकामना ।
महत्त्वमुख्यत्वमनस्तदाऽमुना, क्रियेत किं सम्मिलितान्नपानकम् ॥
___ यह स्पष्ट है कि यदि भिक्षु के हृदय में गुरु से अलग होने की भावना, अपने नाम से गच्छ के उद्भव की कीर्तिकामना और मुख्य बनने की लालसा होती तो वे पुनः गुरु के साथ आहार-पानी का संभोग कैसे जोड़ते ?