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सप्तमः सर्गः
७१. तावत्तेभ्यो रम्याः शब्दाः, समववहन्ते गुणगणदृब्धाः । अहो अपूर्व: पुरुषो दृष्टः, कैरपि पुण्यैरयमाकृष्टः ॥
तब वे श्रावक (अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए ) रम्य शब्दों में मुनि भिक्षु का गुणगान करते हुए बोले- 'अहो ! आज एक अपूर्व पुरुष का साक्षात्कार हुआ है ! हमें प्रतीत हो रहा है कि हमारे ही किन्हीं पुण्यों से आकृष्ट होकर ये यहां आए हैं।
७२. अधुनावध्यपि पुण्यपवित्रा, चित्रविचित्रा चारुचरित्रा । एतादृक्षैरेव धरित्री, रत्नसवित्री रत्नधरित्री ॥
साधर्मिको ! ऐसे पुरुषों से ही आज तक हर्ष से विचित्र तथा सुन्दर चरित्र वाली रही है। पृथ्वी रत्नगर्भा और रत्नधरित्री कहलाती है । .
७३. क्षणवलक्षणलक्षणलक्ष्यः,..
क्षोणितलैरखिलैरुपलक्ष्यः ।
'अमुना वादयतीयं धाता, वसुधा वसुन्धरा इति नाम्ना ॥
इस युग में यह पुरुष (मुनि भिक्षु) कोई विलक्षण लक्षणयुक्त है । यह समूचे पृथ्वीतल पर शरणभूत है । यह वसुधा इन्हीं के प्रताप से 'वसुन्धरा' कहलाती है ।
७४. नहि नहिं भूमितलं गतवीरं यत्संयोगात् सम्प्रति वीरम् ।
यावच्छ्रीभिक्षोः संवृत्त्यं तावत् सुखतो विलसतु सत्यम् ॥
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यह धरा पुण्य से पवित्र, ऐसे नरपुंगवों से ही यह
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यह भूमी आत्मबली वीरों से शून्य नहीं हुई है । ऐसे पुरुषों के संयोग से यह आज भी वीरवती है । जब तक श्री भिक्षु विद्यमान हैं तब तक 'सत्य' सुख की सांस लेता रहेगा ।
७५. सत्यस्मिन्नो कान भीतिः, फुल्लतु सत्यं फलतु सुनीतिः । यस्मात्तस्य विजयिसाम्राज्यं, पुनरपि भविता भरते प्राज्यम् ॥
इनके होते हुए सत्य को कोई भय नहीं है । "वह खूब फूले - फले और सुनीति फलवान् बने । इसी भिक्षु से भारतवर्ष में पुनः सत्य का विजयी साम्राज्य स्थापित होगा ।
७६. आसीदेषां "हृदये · साक्षात्
सन्धोद्धारंमहत्वाकाङ्क्षा । सा साफल्यवतीव विशङ्का, लग्ना नूनं विगतातङ्का ॥
१. उपलक्ष्य : - आर्धार, शरण्यः ।
२. संवृत्त्यं – विद्यमानता ।