________________
२१८
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् इन श्रावकों के मन में प्रगट रूप से संघोद्धार की महत्वाकांक्षा थी। उस आकांक्षा को फलवती होने में अब कोई शंका या भय नहीं रहां । ..
७७. नेशा रोद्धं हृदयोत्कण्ठाः, सम्भाषन्ते कोमलकण्ठाः । यादृग् विश्वासो भवदीयः, समुपादर्शित ईदृक् स्वीयः॥
अपने हृदय की उत्कंठाओं को रोकने में असमर्थ वे श्रावक तब कोमलकंठों से कहने लगे-'हे आर्य ! आप पर जैसा विश्वास था, वैसा ही आपने कर दिखाया। ७८. एकमदस्ते मानसपूतं, वाक्यमहो गुणगणतः स्यूतम् । अन्तःकरणं नो विश्वस्तं, नानाऽऽलापैः प्रणयति शस्तम् ॥
'गुरुवर्य ! गुण-समूह से ओतःप्रोत और पवित्र मन से निःसत आपके एक ही वचन ने हमारे अन्तःकरण में विश्वास पैदा कर दिया है।' इस प्रकार वे श्रावक नानाविध वचनों से मुनिश्री का प्रशस्त गुणगान करने लगे।
७९. एको ह्यब्जो भुवनाभोग, प्रणयति किं नो ललितालोकम् ।
कि नो एकः किल तिमिरारिः, संहरते. सन्तमसामालीः ॥ ८०. उत्कलयन्तं , तिलतिलसारं, द्वैपञ्चाशन्मनमयवारम् । ... एकोऽयं हरिचन्दनबिन्दुः, शेमयति कि नो जितहिमसिन्धुः॥ ८१. शोषितमोषितसारविलुप्तं, ग्रीष्मर्तोः सन्तापैस्तप्तम् ।
किं नो पुष्कलवों मेघः शमयति विश्वं गलितोद्वेगः॥ ८२. इत्थं याऽभवदेका वाणी, विगतोत्साहमुखैमलिनानि । क्षालं क्षालं बद्धाशानि, व्यङ्क्ते नोन्तःकरणशतानि ॥
(चतुभिः कलापकम्)
वे श्रावक बोले- क्या एक ही चन्द्रमा अपनी धवल चन्द्रिका द्वारा संपूर्ण पृथ्वीतल को आलोकित नहीं कर देता? क्या एक अकेला सूर्य सघन अंधकार को नष्ट नहीं कर देता ?' _ 'क्या हिमसिन्धु को जीतने वाला हरिचंदन का एक बिन्दु उबलते हुए बावन मन तैल को ठंडा नहीं कर देता?'