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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् तब मुनि भिक्षु अपने अज्ञान को दूर करने के लिए सफल प्रयत्न करने लगे और आत्मसंबोधन कर कहने लगे-आत्मन् ! यदि मिथ्या कहने में भी तुमको :किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ तो अब सत्य कहने में कौनसा भय है ? "EE.इंति निर्भीकतया श्राद्धानां, तेषां प्रोचे सह शङ्कानाम् । यूयं सत्याः सत्यपवित्राः, मिलिताः नः किं सहजसगोत्राः ।।
ऐसा विचार कर मुनि भिक्षु ने निर्भीकता से उन शंकाशील श्रावकों को कहा--'तुम सच्चे हो, सत्य से पवित्र हो । मैं मानता हूं कि तुम मुझे सहजरूप में सगे भाई ही मिल गए हो।' ६७. वयमानृत्ये स्पष्टं स्पष्टं, निःसङ्कोचं तेनाघुष्टम् ।
अस्माच्छेषं गुरुसंपर्काद्, व्याचिख्यासुः पश्चात् साक्षात् ॥ . मुनि भिक्षु ने निस्संकोच होकर घोषणा की-श्रावकों ! हम मुनिजन स्पष्टरूप से असत्य मार्ग पर हैं। अभी तो मैं इतना ही कहता हूं। शेष मैं गुरुदेव से संपर्क करके ही कहूंगा। ६८. वयमभिषज्य स्फीतस्फूर्त्या, गुरुभिः साकं पूर्णप्रीत्या।
आदित्सामः शुद्धं मार्ग, मोचं मोचमशुद्धं मार्गम् ॥ ... श्रावको ! चातुर्मास के पश्चात् . हम अत्यंत स्फूर्ति के साथ गुरु के पास जायेंगे और पूर्ण प्रीति से उन्हें शुद्ध मार्ग का दिग्दर्शन करा कर अशुद्ध ‘मार्ग को छोड़ने के लिए निवेदन करेंगें।.. ६९. भिक्षोर्वाचं श्रावं श्रावं, तेऽपि च तथ्या द्रावं द्रावम् । ___तस्थुर्मुदिता मेदुरमुग्धाः, स्थितवानेत्रा मानसलुब्धाः ॥ . : मुनि भिक्षु की वाणी सुनकर वे श्रावक द्रवित हो गए, गदगद्-हो गए, तथ्य को पीने लगे एवं हर्ष के अतिरेक से मुग्ध हो गए। उनके नेत्र और वाक् स्तंभित हो गए और उनका मानस भिक्षु में लुब्ध हो गया। ७०. लालाटिकता ते भजमाना, अनिमिषनयना विस्मयमानाः । .
तान्त्रिकदिग्धा मन्त्रविमुग्धाः, संजाता इव सान्द्रस्निग्धाः॥
''वे श्रावक सावधान उपासक की भांति मुनि भिक्षु को देखने लगे। विस्मय से उनके नेत्र अनिमेष हो गए। जैसे कोई व्यक्ति तंत्र से विमोहित
और मंत्र से विमुग्ध हो जाता है, वैसे ही वे उपासक विमुग्ध होकर भिक्षु के प्रति अत्यन्त स्नेहिल हो गए। १. लालाटिक:-सावधान उपासक ।