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________________ सप्तमः सर्गः २१३ हम चन्द्रप्रभ नामक दुधारे खड्ग को जीतने के लिए आज सबकी रक्षा करने वाला जैनागम रूप सूर्यप्रभ खड्ग को स्वीकार करते हैं । .४८. इति निर्णीतमतेन सुभक्त्या, तेषां श्राद्धानां विज्ञप्त्या । ५ १ ८ १ शर-शशि-वसु-महिवर्षावासंश्चक्रे तैरपि तत्रावासः ॥ मुनि भिक्षु ने ऐसा निर्णय कर राजनगरवासी श्रावकों की पुनीत भक्ति एवं विज्ञप्ति से विक्रम सम्वत् १८१५ का चातुर्मास राजनगर में ही किया । ‘४९. अविचलरीत्या पुनरपि शोद्ध, सत्यमसत्यं किमिति विबोद्धुम् । . समयाध्ययने - स प्रतिबद्धः ॥ दृढसंङ्कल्पदृढासनबद्धः, उस चतुर्मास में अविचल पद्धति से सत्य-असत्य को जानने के लिए मुनि भिक्षु होकर आगमों के अध्ययन में जुट गए । पुनः अवबोध प्राप्त करनेतथा दृढ़ संकल्प और दृढ़ आसनबद्ध ५०. यथा यथाध्यवसायं कुरुते, तथा तथाऽतनुतेजस्तनुते । सा श्रुतदेवी परिसंतुष्टा, ददते सत्यादर्श जुष्टा ॥ जैसे-जैसे मुनि भिक्षु आगमों का अध्ययन करते जाते थे, 'वैसे-वैसे उनकी आत्मा में अत्यधिक प्रकाश होता जाता था । ऐसा प्रतीत हो रहा था . कि मानो श्रुतदेवी संतुष्ट होकर प्रसन्नता से उनको सत्य का साक्षात्कार करा रही हो । ५१. छात्रमलभ्यं यं च विदित्वा विशिनष्टिीति किमेव सुहित्वा । आम्नायैनं मेऽन्तः प्रीत्या, जायेद्याऽहं किल कृतकृत्या ॥ वह श्रुतदेवी प्रसन्नचित्त से एवं अन्तःकरण 'को' अलभ्य छात्र समझ कर विशेष अध्ययन के लिए वह ऐसा चिन्तन कर रही थी कि मैं आज इनको सिद्धान्तों का सही अभ्यास करा कर कृतकृत्य हो जाऊं । की प्रीति से मुनि भिक्षु प्रेरित कर रही थी । ५२. कल्पान्ते जलमुक्ते व्यक्ते, रत्ननिधौ रत्नैः संयुक्ते । रत्नदर्शवत् सत्यादर्श, भवते यत्र विवेकाकर्षम् ।। जैसे प्रलयकाल में रत्नसंयुक्त रत्नाकर की विशाल जलराशि सूख जाने के बाद, सारे रत्न स्पष्ट दिखाई देते हैं, वैसे ही विवेक के उत्कर्ष से मुनि भिक्षु को आगमों में सत्यरूप रत्न स्पष्ट दिखाई देने लगे ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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