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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
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५३. अचिरामन्दानन्दविधात्या
सान्द्रानन्दितराज्यसवित्या । .
तस्याऽवैतथत ष्णादेव्या, नैव मुच्यते क्षणमपि सेवा ॥
अचिर- अमन्द आनन्द को उत्पन्न करने वाली एवं मोक्ष सुखों की जननी वह सत्य रूपी तृष्णा देवी उस मुनि की क्षण मात्र के लिए भी सेवा नहीं छोड़ती थी । अर्थात् मुनि में सत्य की तृष्णा अधिकाधिक बढ़ती ही जा रही थी ।
१५४, नैथून्यं नहि तिष्ठेत् किञ्चित्, ततोऽप्रमादी सैष विपश्चित् । एकं चैकं सूत्रं सकलं, द्वौ द्वौ वारमधीते विमलम् ॥ किसी भी विषय की ज्ञप्ति में किसी प्रकार की कमी न रह जाए ऐसा विचार कर उस मेधावी मुनि भिक्षु ने अप्रमत्तता से एक-एक सूत्र का दो-दो बार अध्ययन कर सभी आगमों का परायण कर लिया । Testa
-५५. वाचं वाचं समयविचारं संतनुतेऽसौ वारं वारम् ।
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क्वायं शुद्धविशुद्धाचारः, क्व च नोऽशुद्धाऽशुद्धाचारः ॥
सिद्धान्तों का अध्ययन कर लेने के पश्चात् मुनि ने सोचा - कहां तो आगम-सम्मत यह शुद्ध आचार और कहां हमारा यह अशुद्ध आचार !
५६. क्व च जिनभाषितमुच्चं वृत्तं क्व च शैथिल्यमितः परिवृत्तम् ।
क्व च सुरवरशिखरीश्वरशिखरं, क्व च चरमान्त्यरसातलविवरम् ॥
कहां तो जिनभाषित उच्च चारित्र और कहां इन सन्तों की शिथिल प्रवृत्ति ! कहां तो सुमेरु पर्वत का उच्चतम शिखर और कहां पाताल का चरमान्त विवर !
५७. केऽयं नीरागा गमवाणी, क्व च मे गुरुरिह रागवितानी ।
क्व च गङ्गाजलनिर्मलधारा, क्व च मलिना पुरपल्वलधारा ॥
कहां तो यह वीतराग की निर्मल वाणी और कहां मेरे गुरु की मोह को वृद्धिंगत करने वाली वाणी ! कहां तो गङ्गा की निर्मल धारा और कहां गांव के तलाई की मलिन धारा !
५८. यज्जिनपैरुदितं श्रामण्यं, दुष्करदुष्करमतिकारुण्यम् । अस्माभिः स्वीकृतमतमेतन्नहि नहि तदिदं खलु वर्त्तत ॥
तीर्थंकरों ने दुष्कर - अतिदुष्कर संयमप्रधान श्रामण्य का प्रतिपादन किया था । हमने उसीको स्वीकार किया है । किन्तु आज हम जिसका पालन कर रहे हैं, वह श्रामण्य वैसा नहीं है ।