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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ४२. समयात् पृष्ठे गुरवो गुरवः, पारे समयं ते हि कुगुरवः।
समयविहीनास्ते वाचालाः, तेषां संलापा विकरालाः ॥
.... जो. सिद्धान्त के पीछे-पीछे चलते हैं, वे ही गुरु गुरु हैं और जो सिद्धान्त का अतिक्रमण कर चलते हैं, वे कुगुरु हैं। आगमज्ञान से विकल पुरुष का कथन केवल वाचालता (बकवास मात्र) है, और उसके आलापसंलाप दारुण परिणाम वाले होते हैं।
४३. दुःषमकाले समयाधारः, सौत्रः सम्प्रति सद्व्यवहारः।
यो वर्तेतागमतश्चोवं, . कस्ते कुरुते हस्तावूर्ध्वम् ॥ ... इस दुःषमकाल में सिद्धान्तों का ही आधार है और सूत्रानुसारी सद्व्यवहार पर ही जैन जगत् टिका हुआ है। अतः जो सिद्धान्तों का अतिक्रमण कर आचरण करते हैं उनको कौन दोनों हाथ ऊंचे कर नमन करेगा? :.. ४४.नो समयः परिवर्तनशीलः, तत्त्वरसः समयान्तरलीनः। . ___अनुसमयं सद्व्याख्यातारः, समयमुपाखिलगुरुशास्तारः ॥ . . . . ...
सिद्धान्त परिवर्तनशील नहीं हैं और जितने भी. तत्त्वरस हैं वे सिद्धान्त में अन्तर्लीन हैं । सिद्धान्त का अनुसरण करने वाले ही सद्व्याख्याता हैं, गुरु हैं तथा शास्ता हैं। .. ... ...
४५. समयादऽपरं किमपि न शरणं, किमपि न समयपरं निस्तरणम् । . अस्मात् तच्छरणं. प्रतिपद्ये, परशरणार्थ किमहं खिद्ये ॥ . .::
__ इस संसार में सिद्धान्तों के सिवाय · और दूसरा कोई शरण नहीं है, तथा सिद्धान्त के अतिरिक्त दूसरा कोई भव-समुद्र से पार उतारने वाला नहीं है । इसलिये: मैं सिद्धान्तों की ही शरण लू, अन्यान्य शरण लेने के लिए क्यों परिश्रम करू?
४६. समयोऽयं चिन्तामणिरत्नं, यस्मात्तस्मै तन्वे यत्नम् । उपतिष्ठेऽहं तं प्रति यत्नं, साफल्यं च ततोस्त्यचिरत्वम् ॥
सिद्धान्त ही चिन्तामणि रत्न है। इसलिए मुझे उसकी यथार्थ प्राप्ति का यत्न करना चाहिये । मैं उसके लिए प्रयत्न करता हूं, जिससे मुझे शीघ्र ही सफलता मिल सके। ४७. जेतुं चन्द्रप्रभनामानं, तदुभयधारं कृष्टकृपाणम् ।
गृह्णामो जैनागममानं, सूर्यप्रभमभितः सत्त्राणम् ॥