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३०. द्रव्याचार्यं
पक्षापातैः,
सत्यं वदिता सत्योद्घातैः । तदपि च परलोके बहुकठिनं प्रक्ष्यति कोपि न मामतिहठिनम् ॥
यदि मैं पक्षपात के द्वारा सत्य का हनन कर द्रव्याचार्य को यथार्थ बताऊं तो भी परलोक में मेरे लिए अत्यन्त कठिनाई उपस्थित होगी और मेरे जैसे दुराग्रही को कोई भी पूछने वाला नहीं मिलेगा ।
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
३१. नरकनिगोदे भ्रमणाऽऽभ्रमणे, परमाधार्मिककट्वाऽऽक्रमणे । एष गुरु कष्टकराले, नहि नहि रक्षति तस्मिन् काले ॥
मिथ्या प्ररूपणा के परिणाम स्वरूप जब मैं नरक - निगोद में बारबार जन्म-मरण करूंगा और जब परमाधार्मिक देव मेरे पर कटु आक्रमण करेंगे तब ये द्रव्यगुरु उन भयंकर कष्टों से मेरी कभी भी रक्षा नहीं कर पायेंगे |
३२. कुगुरोः कार्य ग्रहणकृपाभिः, क्षणिकोत्साहनसुमुखाभाभिः । नरकयातना नहि मुच्यन्ते, घोरशातना नहि हीयन्ते ॥
कुगुरु की अपने प्रयोजन से की गई कृपा से तथा क्षणिक उत्साह बढ़ाने के लिए दिखाई गई मुख की प्रसन्नता से नरक की यातना छूट नहीं सकती तथा नरक के घोर आघात कम नहीं हो सकते ।
३३. इत उदितोऽयं मे गुरुदेवः, समय इतोऽयं गुरुगुरुदेवः । ऐते श्राद्धा इत उत सत्या, इत आत्मा मे सत्य समित्याः ॥
ओर गुरु के भी गुरु ये आगम हैं । एक ओर ये दूसरी ओर सत्य - समन्वित मेरी आत्मा है ।
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आत्मन् ! एक ओर मुझे प्रव्रजित करने वाले गुरुदेव हैं और दूसरी सत्यनिष्ठ श्रावक हैं और
३४. जातुचिदपि कस्यापि कुतोपि स्यां नो वञ्चकसत्यालोपी | अधुना मेस्ति परीक्षणनिकषः, कथमपि नैव भवेयं विवशः ॥
सत्य का अपलाप न करू और किसी के प्रभाव से लिए अब मेरी यह परीक्षा की कसौटी है ।
ऐसी स्थिति में मैं कभी भी, किसी की, कहीं भी वंचना न करू ं,
विवश न हो जाऊं, इस
३५. यावान्नपराधो गुरुपक्षाद्, वितथस्यापि तथात्वसमीक्षात् । न्यूनस्तन्नो दुर्व्यवहरणे, सूरि प्रति प्रतिकूलाचरणे ॥
जितना अपराध गुरु का पक्ष ग्रहण करने का है उतना ही अपराध मिथ्या प्ररूपणा का है और आचार्य के प्रतिकूल आचरण तथा मिथ्या व्यवहार करना तो उससे भी अधिक अपराध है !