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सप्तमः सर्गः २४. कार्य नहि सहसा रामस्यं, प्रागालोच्यं कार्यमवश्यम् । । ____नो चेतावत् कोटिकलापः, पदि पदि पश्चात् पश्चात्तापः॥ '' : 'मनुष्य को पहले सोचे-समझे बिना हठात् कोई कार्य नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो पग-पग पर फिर अत्यधिक पछताना ही पड़ता है। २५. पुनरेतादृशतात्त्विकविषयः, कम्पन्तेऽत्र महोत्तमऋषयः। सांशयिकः पुनरेष इदानीं, कोऽयं त्वरते तत्र तदानीम् ॥
पुन: ऐसे तात्त्विक विषयों में महान् ऋषि भी कांप उठते हैं और अभी तक यह विषय संदेहास्पद और चिन्तनीय ही है। अतः ऐसे विषयों में कौन जल्दबाजी करेगा?
२६. तापोत्तीर्णे सोऽयं भिक्षुः, सत्यशुभान्तरचित्तमुमुक्षुः ।
आरोग्यं दृष्ट्वा निजगात्रं, चिन्तयते परितोऽतिसुपात्रम् ॥
. ज्वर से मुक्त होकर सत्यान्वित और प्रशस्त चित्त वाले भिक्षु मुनि अपने सुपात्र गात्र को स्वस्थ देखकर ऐसा सोचने लगे। . . २७. सहसा शुभमारोग्यं लब्ध्वा, मुक्तावेका दृष्टि बध्वा । अधुनादृत्याजवपन्थानं, करणीयं निश्चितकल्याणम् ॥
मुझे सहसा प्रशस्त आरोग्य प्राप्त हो गया है। अब मुझे मुक्ति को लक्ष्य में रखकर, वीतराग मार्ग को स्वीकार कर अपना निश्चित कल्याण करना है।
२८. वितथैः सम्पृक्ता न भवामस्तादृनिगमे वल्गु वहामः।
तस्मै तावत् सफलायासः, करणीयोऽयं शास्त्राभ्यासः॥ .., . हमें ऐसे मार्ग में प्रशस्तरूप से चलना है जहां असत्य से संपर्क न हो। इसलिए अपने प्रयास को सफल बनाने के लिए हमें शास्त्रों का अभ्यास, करना चाहिए।
२९. यदि सत्यानपि वितथान् ब्रूमः, परलोकेऽथ ततो रोरूमः।
दुर्लभदुर्लभरसनाप्राप्तिर्बहुलाकारैर्बहुदुःखात्तिः . ॥ ''. जो सच्चे हैं यदि हम उन्हें भी झूठा कहें तो परलोक में हमें बहुत रोना पड़ेगा । इसके परिणाम स्वरूप हमें जिह्वेन्द्रिय नहीं मिलेगी और हमें नाना प्रकार के दुःख भोगने पड़ेंगे।