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वह सूर्य अपने तेजपुंज को फैलता हुआ कर रहा था - हे महामानव ! आप संसार से सत्य का विकास करें ।
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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
बार-बार भिक्षु को प्रार्थना असत्य का संहरण करें और
१९. कार्ययुगं तत् सहसा तक्यं भवता भवितुं शक्यं शक्यम् ।
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करणीयं चेत् कुरु कुरु कृपया, पश्य जगत् स्फुरदन्तः प्रभया ॥
ये दोनों चिन्तनीय कार्य आपसे ही सहज संपन्न होंगे । यदि आपको यह करना है तो शीघ्रता करें और अन्तःस्फुरित प्रज्ञा से जगत् को देखें |
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२०. सत्यं प्रायः कण्ठे श्वासं, पुनरुज्जीवय सम्प्रति साऽऽशम् । नो चेन्निविडं घोरतमित्र, भविता भारतवर्षेऽजस्रम् ॥
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आर्य ! जो सत्य है उसके श्वास - प्रायः कंठों में आ गए हैं । ( वह मरणासन्न हो रहा है ।) उस सत्य को पुनः उज्जीवित करें। यदि ऐसा नहीं होगा तो मिथ्यात्व का सघन अंधकार भारतवर्ष में शीघ्र ही छा जाएगा ।
२१. एकोऽसि त्वं रक्षणकर्त्ता, त्वत्तः कोपि न शक्तिविभर्त्ता । तन्निस्तरणे भव भवनौका, परिहरणीया मद्व्यतिरेका ॥
हे मुने ! आप ही एक ऐसे हैं जो सत्य की रक्षा करने में समर्थ हैं । आपसे बढ़कर और किसी दूसरे में यह शक्ति नहीं है । इसीलिए लोगों को भव - समुद्र के पार ले जाने के लिए आप नौका बनें और मेरी आशंका को दूर कर
२२. किन्तु महोच्चतमाः पुरुषा ये, भिन्नैर्नुन्ना अप्यतुषा ये । 'आन्तरनिर्मललोचनललिताः, सामस्त्यैः श्रेयः सङ्कलिताः ॥
२३. परवशतां ते नैव भजन्ते, हठराभस्यं नैव नयन्ते । लोचं लोचं पदमेकैकं, प्रणिदधते ते प्रणयविवेकम् ॥
( युग्मम्)
किन्तु महान् पुरुष औरों से प्रेरित होकर कोई कार्य नहीं करते । वे अपने निर्मल अन्तर् नयनों से चारों ओर देखकर ही श्रेयस्कारी कार्य में प्रवृत्त होते हैं ।
वे महापुरुष परवश नहीं होते । वे आग्रह और जल्दबाजी में कोई कार्य नहीं करते । वे विवेकी पुरुष अपना प्रत्येक चरण सोच-सोच कर रखते हैं ।