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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
१७. क्षयिणं क्षयिणं दयनीयतम, तलिनं मलिनं बलिनं तरणिम् । . स्फुटमस्तमितं शमितं समिनं, समवेक्ष्य तमस्तिमिरारिपतिम् ॥ १८. सहसैव समग्रमुदग्रमहो, रिपुराज्यमदस्तिमिरं जगृहे ।। उपलभ्य निजीयशुभावसरं, नयते नहि कः कमनीयफलम् ।
(युग्मम्) उच्च आकाश में गमनशील व बलिष्ठ सूर्य को क्षीणतर, दयनीय, दुर्बल, मलिन, श्रान्त एवं संकुचित अवस्था में स्पष्ट रूप से अस्त होता हुआ देख, उस अंधकार ने सहसा उसके विशाल साम्राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया। ऐसा शुभ अवसर पाकर कौन भला अपने ईप्सित कार्य को सिद्ध नहीं करेगा?
१९. लसदम्बरशम्बरशम्बरके, तिमिरोमिमिषात् प्रससार तमः । अमिलत्प्रतिरोधकरो न कुतः, अमिताऽश्रमितासुमतां सुखदम् ॥
अब वह अंधकार चमकते हुए आकाश-सिन्धु के जल में काली-काली कल्लोलों के मिष से चारों ओर फैल गया। वह श्रान्त और अश्रान्त सभी प्राणियों के लिए सुखद था, इसलिए किसी ने उसका प्रतिरोध नहीं किया।
२०. क इहैक उदस्तमुपैतितरां, क इहैक इयर्युदयं प्रकटम् ।
विकसन्तकि केपि कषन्तकि के, परिवर्तनशीलमिदं भुवनम् ॥
___ इस दुनियां में जहां एक का ह्रास होता है तो एक का विकास भी। एक कुम्हलाता है तो एक खिलता भी है। इसीलिए तो यह संसार परिवर्तनशील है। २१. अहमस्मि महाशुभभाग्यवती, मुनिभिक्षुरयं धृतधीरधृतिः। मयि नेष्यति बोधमिति प्रमुदा, रजनी मुदिताऽमुदितान्तकरी ॥
यह धैर्यधारक धीर पुरुष मुनि भिक्षु मेरी अवस्थिति में (रात में) बोधि प्राप्त करेगा, इसलिए मैं परम सौभाग्यवती हूं, ऐसा विचार कर वह प्रसन्न रात्री सबकी खिन्नता को नष्ट करती हुई प्रमुदित हो उठी।
२२. ततः एव शशाङ्कसुदीपरुचि, विरचय्य किमूडुसमूहसुमम् । ___ अरविन्दति चन्दति नन्दतकि, वियदीन्दति भन्दति विन्दति या ।।
२३. अथ तत्र हि सत्वरतीव्रतरः, शिशिरज्वर उत्सुकतां विदधत् ।
तनुतेऽतनुभिक्षुतनाऽवतनु, प्रतनुत्वमुदित्वरमुग्रतरम् ।।
(युग्मम्)