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षष्ठः सर्गः
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अथवा पाखण्डियों की कुमति रूप तीक्ष्ण धार वाली तलवार से जैन धर्म की हत्या होती देख और उसका उद्धार भी दुर्लभ जानकर मानो यह सूर्य सुदूरवर्ती अस्ताचल पर्वत पर जा बसा हो। ११. इदमुत्तरतापवितप्ततनुर्घनघर्ममपोहितुमारतितः। सवनेप्सुरगाधसमुद्रजले, प्रविशन्निव भाति कराकुलित: ॥
अथवा भिक्षु मुनि द्वारा दिए गए मिथ्या प्रत्युत्तरों के संताप से संतप्त सूर्य अपनी शारीरिक गर्मी को दूर करने के लिए स्नानेच्छु हो अपनी किरणों को समेट कर अपार समुद्र जल में प्रवेश करता हुआ-सा दिखाई दे रहा था । १२. न हि कोप्यवबोधयितुं प्रभवो, यदि कोपि भवेत् शृणुयादिह कः। तुमुलं प्रचिकीर्षुरतेन सममिति शोकहतः स्खलितांतिरिव ।
अथवा इस संसार को प्रतिबोध देने में कोई समर्थ नहीं है, यदि कोई है भी तो उसकी सुनने वाला कोई नहीं, यह सोचकर शोकाकुल सूर्य सत्य का पक्षधर बन, व्याकुलता से शब्द करता हुआ लंगड़े की भांति लड़खड़ाता-सा जाता हुआ नजर आ रहा था। १३. क्रमशः स्वकरानपहाय खरान्, परिवृत्त्य मनोरममण्डलकम् ।
परिसंवृतशुक्लहरिद्ररुचि:, शुभशोणसमः प्रविभूय जवात् ॥ १४. रुचिराचरणं च दुराचरणैश्चरितं चरितच्युतचेतनकः।
हतघातकपातकपिञ्जरितं, जिनराजमतं बहुमन्थरितम् ॥ १५. अतिभावतमः पतितं भुवनं, प्रतिभाल्य भयाकुलमार्यकुलम् ।
हृदयान्तरसंभतसंतमसं, निरसन् बहु बाह्यतमश्छलतः ।।
१६. अधमाधमशंकुरसंकुलितं, समयं समवेत्य तथा कुनयम् । ग्लपयन् ग्लपिताननतस्तरणिरह भारतवर्षमपास्य गतः ॥
(चतुभिः कलापकम्) अथवा दुराचरणशील तथा चरित्रभ्रष्ट मनुष्यों द्वारा उत्तम आचारविधि का हनन, हत्यारे पापियों द्वारा जिनमत को जर्जरित व मन्थरित, विश्व को मिथ्या अन्धकार से अभिव्याप्त एवं आर्यकुलों को भय-विह्वल तथा युग को अधमाधम हिसकों एवं अन्यायियों से अभिव्याप्त देखकर हृदय में जो क्रोध उभर रहा था उसको बाह्यतम के मिष से बाहर निकालता हुआ सूर्य ग्लानिपूर्वक खिन्नानन से अपनी तीक्ष्ण किरणों को समेट कर, अपने मण्डल को घुमाता हुआ, गोल, शुक्ल, हरिद्र एवं लाल होता हुआ इस भारत को छोड़ अन्यत्र चला गया।