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धीभिक्षुमहाकाव्यम्
_ मिथ्या प्रत्युत्तरों से खिन्न चेता भिक्षु की असह्य व्यथा से व्यथित होता हआ तथा उनके प्रति अपनी संवेदना प्रगट करता हुआ मानो उनकी (भिक्षु की) वेदना को देखने में असमर्थ होता हुआ, स्वयं तेजोहीन बन वह सहस्ररश्मि सूर्य अपनी रश्मियों को अग्नि को उपहृत कर-लाल होकर शीघ्रातीशीघ्र अपने तीर्थस्थान-अस्ताचल की ओर तीव्रगति से जाता हुआ दृष्टिगत हो रहा था।
६. जगतः किरणानवकृष्य निजान्, कमलानि विमुद्रय सुमुद्रय रयात् । विरचय्य सुशोकितकोकगणान्, नयनप्रगति प्रतिरोध्य नृणाम् ॥
७. निजमण्डलकुण्डलमण्डनतो, हरितं वरुणस्य विभूषयितुम् । भ्रमणातिपरिश्रमखिन्नमनाः, शयनेच्छुरिवायमपायमृते ॥
(युग्मम्) अस्तंगत होते हुए सूर्य ने संसार से अपनी किरणों को समेट कर, स्वयं संकुचित हो, सूर्यविकासी कमलों को संकुचित कर डाला। उस समय चक्रवाक के समूह शोकमग्न हो गये तथा मानवों की दृष्टि निरुद्ध हो गई। सूर्य अपने मंडलरूप कंडल से वरुण दिशा को अलंकृत करने तथा अपने भ्रमण के अतिश्रम से खेदखिन्न मन को विश्राम देने के लिए निर्विघ्नरूप से शयन करने की इच्छा से अस्ताचल की ओर चला गया ।
८. अदसीयकथापकथाकथनं, कलितुं व्रजतीव विदेहविभौ। अथवा जिनधर्मविलोपकतामसहिष्णुरिवैति गिरौ गहने ॥
अथवा ऐसा लगता है कि सूर्य विदेह क्षेत्र में विहरमान श्री सीमन्धर स्वामी के पास इन महामुनि की दिन में घटित घटना को यथावत् कहने के लिए चला गया हो या जैन धर्म की इस पराभूति को सहन न कर सकने के कारण गिरि के गहन गह्वर में जा छिपा हो।
९. छलतो बलतो मलतो दलतः, कथमेव भवन्त इह प्रबलाः। वितथा अपि चित्रमवेत्य तपः, परितप्तुमिवाद्रिगुहामुपयन् ।।
अथवा छल, बल, मलिनता एवं गुटबन्दी से मिथ्याभाषी श्रावक कैसे पनपते जा रहे हैं, मानो इससे परितप्त होकर ही यह सूर्य तप तपने के लिए गिरि गुफा में प्रस्थित हो गया हो।
१०. कुमतेः कुमतिकरवाललवादमुना विधिना जिनधर्महतिम् ।
अवलोक्य सुदुर्लभमुद्धरणं, विरजन्नपरादिमिवाधिवसन् ॥