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षष्ठः सर्गः
१. प्रणिपत्य जिनं जितरागगणं, गणराजनिषेवितसेव्यपदम् ।
पदपद्मशिलीमुखजालजगज्जगदीशमनीशमनीषिमतम् ॥
२. अथ भिक्षुमुनेः प्रतिबोधविधा, सुविधाजनक जनकजहिते। प्रतिपाद्य विवक्षुरपक्षतया, विवृणोम्यधुमात्मिकजागरणम् ॥
(युग्मम्) राग-द्वेष के विजेता, गणधरों से पूजित, जगत् के अधिनायक, मनीषिमान्य तथा परमेश पद को अलंकृत करने वाले जिनेश्वर देव को नमस्कार करता हूं, जिन के पादपद्मों में समस्त संसार भ्रमर की तरह विहरण करता है । अब मैं भव्य प्राणियों के सहज उद्धार के लिए महामना भिक्षु स्वामी के प्रतिबोध का कारण बतलाकर, निष्पक्षदृष्टि से उनकी आत्म-जागृति पर प्रकाश डाल रहा हूं।
३. अथ तेषु गतेषु जनेषु तदा, मुनिराजमनोजितमारमनः । प्रतिवाक्यजगुप्सितवेदनया, व्यथितं मथितं कुथितं श्लथितम् ॥
उन सत्यनिष्ठ श्राबकों के चले जाने के बाद, उनको दिए गए मिथ्या प्रत्युत्तरों की जुगुप्सित पीड़ा से महामना भिक्षु का कामविजयी मन तिलमिला उठा और वह अत्यन्त व्यथित, विलोड़ित, कुथित एवं शिथिल हो गया।
४. अविकल्पमकल्प्यमजल्प्यमहो, सहसा सबलं निबलत्वमभूत् । ... उदिता प्रतिवञ्चनपातकता, किमुवारयितुं किमु चेतयितुम् ॥
उनका सबल मन कल्पनातीत एवं वचनातीत निर्बलता से सहसा पराभूत हो उठा, मानो दिए गए मिथ्या प्रत्युत्तरों की पातकता ही उनको ऐसा करने से रोकने के लिए चेतावनी देती हुई उदित हुई हो। .
५. तदसौख्यमसोढुमनूरुपतिः, समवेदनताल्पतपा विमतिः ।
अनलाहुतरुक् तरसा तरसा, निजतीर्थततौ तततीव्रगतिः ॥