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पंचमः सर्गः
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१५८. तादृगभविष्यजिनशासनभास्वताऽपि,
सूत्राद् विरुद्धमिदमाचरणं च चीर्णम् । चित्रं परं किमपरं विदुषां समाजे, यमाविने प्रभविने च नमो नमोऽस्तु ।
भविष्य में होने वाले जिनशासन के सूर्य मुनि भिक्षु ने सूत्रों के विपरीत यह आचरण किया। विद्वत् समाज में इससे बडा और क्या आश्चर्य हो सकता है ? परंतु क्या कहा जाए ? भवितव्यता को बार-बार नमस्कार है। १५९. भावापभावपरिवन्दनबोधशून्या
स्ते द्रव्यवन्दनविधि व्यवलोक्य केचित् । हृष्यन्ति तानुपहसन्ति विदूषयन्ति, काक्वा वदन्त्यवनताः प्रणता भवन्तः ।।
द्रव्य वंदना और भाव वंदना के प्रतिबोध से विकल कुछेक व्यक्ति श्रावकों के द्रव्य-वंदना-व्यवहार को देख प्रसन्न हुए, कुछेक उपहास करने लगे, कुछेक उन पर दोषारोपण करने लगे और कुछेक व्यक्ति व्यंग्य ध्वनि में कहने लगे-आप इन साधुओं के चरणों में अवनत हो गए ! प्रणत ही गए ! १६०. संवृत्तमेतदिह कि विहितं मया किं,
तत्तत्त्वमान्तरतरं हृदयेन विन्दुः। गम्भीरतां विशदयन् विशदावदातः, साद'प्रवादपृथुलो' न बभूव भिक्षुः॥
यह क्या हो गया ? मैंने क्या कर डाला? इस प्रकार आन्तरिक तत्त्व का हृदय से वेदन करते हुए मुनि भिक्षु ने विशदता और स्वस्थता के साथ गंभीरतापूर्वक उस पर विचार किया। वे न अत्यन्त प्रसन्न ही हुए और न अत्यंत विषादग्रस्त ही हुए। १६१. तत्कालमूचुरिह तेऽन्वभिवन्दमानाः,
संदेहता व्यपगता न परास्मदीया। किन्तु त्वदीयजिनभक्तिविरक्तिकृष्टा, वन्दामहे पुनरनागतविश्वसित्या ।
१. वेदनशीलो विन्दुः । २. सादः-विषण्णता (विषादोऽवसादः सादो विषण्णता-अभि० २।२४६) ३. पृथुलं-विशाल (पृथूरु पृथुलं व्यूढं-अभि० ६।६६)