SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् उस समय पुनः वंदन-व्यवहार को प्रारंभ करने वाले श्रावकों ने कहा-'हे महामुने ! यद्यपि हमारी शंकाएं मिटी नहीं हैं, किन्तु आपकी जिनेश्वर देव के प्रति आस्था, भक्ति और वैराग्य से आकृष्ट होकर तथा भविष्य में आप सत्य-पथ का अनुसरण करेंगे, ऐसा विश्वास कर आपको वन्दना कर रहे हैं।' १६२. मेधाविमुख्य ! परिलोकय लोकय त्वं, मा प्रत्ययं गमय रक्षय साधुवादम् । साथ विधेहि सुतरां निजभिक्षुनाम, सत्याग्रही सहृदयो भव सत्त्वशाली । 'हे मेधाविन् ! आप चारों ओर ध्यान से देखें, बार-बार देखें। आप अपने भिक्षु नाम को सार्थक बनाएं और सत्य के आग्रही बनने में पूर्ण पराक्रम करें तथा सहृदय बनें। आप जनता के विश्वास को न खोएं। आप संयम की रक्षा करें। १६३. मिथ्याप्ररूपणसमं वृजिनं न चान्य दालोच्यतां पुनरनन्यदृशा भवद्भिः। एवं निवेद्य स गणः समलचकार, स्वं स्वं शमेन सदनं सदनन्तकीत्तिम् ॥ _ 'भंते ! मिथ्या प्ररूपणा करने के समान दूसरा कोई पाप नहीं है । आप वास्तविक दृष्टि से पुनः विचार करें।' इस प्रकार उन अनन्तकीर्ति भिक्ष को निवेदन कर वे श्रावक गण शांतिपूर्वक अपने-अपने घर चले गए। श्रीनाभेयजिनेन्द्रकारमकरोद् धर्मप्रतिष्ठां पुनर् यः सत्याग्रहणाग्रही सहनयराचार्यभिक्षुर्महान् । तत्सिद्धान्तरतेन चाररचिते श्रीनत्थमल्लषिणा, श्रीमद्भिक्षुमुनीश्वरस्य चरिते सर्गोऽगमत् पञ्चमः ॥ श्रीनत्थमल्लषिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये राजनगरश्राद्धानां प्रणतिपरिहारः, भिक्षोस्तत्र गमनं, श्रावकः सह तत्त्वविमर्शः, यथातथा श्रावकसमाधानमित्येतत्प्रतिपादकः पञ्चमः सर्गः । १. वुजिनं-पाप (कल्मषं वृजिनं तमः-अभि० ६.१७)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy