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________________ १७२ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १५४. आचार्यपक्षमभिरक्षयितुं ह्यनेन, छद्मस्थता व्यवसितात्मगतार्यरूपे । मिथ्यात्वपक्षपरिपुष्टसमर्थनाय, मिथ्याश्रये स्थितिरकारि विकारिणाऽत्र । वास्तविकता को जानते हुए भी गुरु के मोह में फंसे हुए मुनि भिक्षु ने छद्मस्थता के कारण आचार्य के मिथ्या पक्ष को जीवित रखने के लिए भेदनीति को अपनाकर असत्य का पूरा-पूरा समर्थन किया और मिथ्यात्व में ही रमण करते रहे। १५५. मिथ्याप्रवाहवहनप्रलये लयेन, पूर्णप्रकाशबलसम्बलसङ्कुलेन । यद्वा परिस्थितिवशाद् विवशेन तेन, स्वान्यप्रतारणविषं विषमं निपीतम् ।। मिथ्या प्रवाह में प्रवाहित होते रहने के कारण या पूर्ण प्रकाश, सामर्थ्य या सम्बल की कमी के कारण या किसी परिस्थिति की प्रतिकूलता से विवश होने के कारण अपने को तथा दूसरों को प्रवञ्चित करने वाले इस जहरीले छूट को भी वे पी गए । १५६. सीमां पदस्य च गुरोरनगारताया स्त्रातुं भवन्नपि मुनिः प्रविहाय तत्त्वम् । तच्छावकाऽवितयशुद्धविचारभावाः, मिथ्याप्रमाणविषयीप्रकृता ह्यनेन ॥ त्राता होते हुए भी श्रमण भिक्षु ने अपने पद, गुरु के गौरव और साधुता की सीमा का उल्लंघन कर सत्य और विशद विचार वाले उन श्रावकों को मिथ्या प्रमाणित कर डाला। १५७. उक्त्वैव तन्न विरराम परन्तु साक्षात्, सिद्धार्थनन्दनवचोविपरीतरीतिम् । आचारगोचरमगोचरखण्डनाहं, जानन्नपीह परिमण्डितवानऽखण्डम् ॥ इतना कहकर ही वे विरत नहीं हुए, परन्तु अपने संघीय आचारगोचर को महावीर के वचनों के विपरीत जानते हुए भी उसे अक्षुण्ण बताया और उसका इस रूप में प्रतिपादन किया कि वह लोगों को अखंडित प्रतीत होने लगा।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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