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________________ पंचमः सर्गः १७१ यदि ऐसा नहीं होता तो ऊपर अमृत और भीतर से हलाहल से भरे हुए जिह्वारूपी कलश से वाणी रस का पान उन विश्वस्त श्रावकों को करवाने के लिए वे तैयार नहीं होते। पर गुरु के प्रति महान् मोह का उदय होने से ही उन्हें ऐसा करने के लिए विवश होना पड़ा। १५१. स्वात्मप्रवञ्चनविपञ्चनमाचरन् स, प्रत्यायितानऽपि हि वञ्चयितुं तदानीम् । आत्मीयसङ्घनिजसङ्घपतिप्रमाणं, प्रत्युत्तरं प्रियतरं विततार किञ्चित् ॥ अपने आपको तथा अपने पर विश्वास रखने वालों को धोखा देते हुए उन्होंने वही प्रिय उत्तर दिया जो अपने संघ एवं संघपति को अभीष्ट था। १५२. संरक्षणीयमनिशं व्यवहारमुख्यं, युष्मादृशः प्रणमनं न कदापि हेयम् । विश्वास्य विश्वसितशान्तसरस्वतीभिः, सम्यक् पुनः समवधित्सुरुवाच चारु ॥ इस प्रकार विश्वस्त एवं शान्त वाणी के द्वारा उन्हें विश्वास दिलाकर कहा- 'मैं पुनः तुम्हारी शंकाओं का समाधान करने का इच्छुक हूं, पर तुम सबको वन्दन व्यवहार की इस उत्तम पद्धति को बनाये रखना है, वंदनविधि का परिहार नहीं करना है।' १५३. शङ्कापशल्यपरिहारपथं प्रहाय, संतोष्य तोष्यततिभिर्बत ! मन्त्रिता वा । सत्यं निगीर्य परिदीर्य विशीर्य सारं, तेनाऽऽहिता सपदि ते गुरुवन्दनायाम् ॥ शंका निराकरण के प्रशस्त पथ को छोड़ अपनी मंत्रवत् मुग्ध बनाने वाली वाणी के द्वारा उन श्रावकों को झूठा विश्वास दिलाकर मुनि भिक्षु सत्य को निगल गए और उसको विदीर्ण और जीर्ण-शीर्ण कर डाला। इस प्रकार वे वन्दना छोड़ने बाले उन श्रावकों को अपनी कुशलता से गुरु-वन्दन करवाने में सफल हो गए। १.इवार्थे।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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