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श्रीभिक्षमहाकाव्यम्
एक ओर सत्य मुझे स्पष्टरूप से आकृष्ट कर रहा है तो दूसरी ओर गुरु के गौरव, मान और पूजा का व्यामोह है । एक ओर सत्य के प्रति मैं नतमस्तक हूं तो दूसरी ओर स्वीकृत मान्यता का परित्याग भी दुष्कर हो रहा है।
१४७. कर्वेऽत्र किं किमु न वेति विकल्पकल्प
वृन्दारकत्रिपथगाशतशोऽभिषेकैः । दूरेस्तु निर्मलभवत्वमहो! परन्तु, जातोऽपवित्रित इवाऽवमचिन्तनेन ॥
वे कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय करने के लिए नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों की तरंगों वाली दिव्य गंगा में गोते लगाते रहे, पर निर्मल होना तो दूर रहा वे विपरीत चिन्तन के कारण अपवित्र ही बने रहे।
१४८. चाणूरवन् मम विपोथयिता कुमारा
च्चाणूरमल्लप्रतिमल्ल इवायमेव । अद्यावधौ मम तरस्त्विति चिन्तयित्वा, दोलायतिस्म किमिमं हतमोहमल्लः॥
मोहमल्ल ने सोचा कि जैसे प्रतिपक्षीमल्ल श्रीकृष्ण ने चाणूरमल्ल को मारा था, वैसे ही यह भिक्षु मुझे भविष्य में मार डालेगा। अभी तो मैं शक्ति-संपन्न हूं। अतः शक्ति रहते मुझे इसे आन्दोलित कर देना चाहिए, वश में कर देना चाहिए। १४९. एवं न चेत् किमिह तत् तरलायितोऽसौ,
विनस्वकीयशिथिलाचरणेपि धीरः। कि वोत्पथे वहति वाहयते परांश्च, जानन्नपि प्रबलभाविवशेन यद् वा ॥
यदि ऐसा नहीं होता तो अपने शैथिल्य का ज्ञान होने पर भी वे धीर पुरुष चञ्चल नहीं होते । पर जानते हुए भी वे उत्पथगामी हुए और अन्य श्रावकों को भी उसी मार्ग में ले चले। या हम यों कहें कि यह सब भवितव्यता के कारण हुआ। १५०. जिह्वानिपेन' बहिरन्यवचोविलास
पीयूषमिश्रितवितथ्यहलाहलं तान् । वश्वस्तिकान् स्वगुरुमोहमहोदयेन,
प्रावर्तत प्रचितभिक्षुरयं निपातुम् ॥ १. निपः-कलश, घडा (कलसः कलशो निप:-अभि० ४।८५)