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________________ पंचमः सर्गः १६९ 'अब आप समुचित उत्तर प्रदान करेंगे इसमें तो कोई संशय का लेश भी नहीं है । हम इसी आशय से मन में पूर्ण संतोष का अनुभव करते हैं और उसी अवसर की प्रतीक्षा करते हुए सुखपूर्वक रह रहे हैं।' १४३. चातुर्यमार्यमविकार्यमजयमाप्य, तैः श्रावविशदतथ्यसुपथ्यवाग्भिः । ईदृक् कृतः श्रमणभिक्षरितस्ततो वा, द्रष्टुं स्वदृष्टिमपवर्तयितुं नमो न ॥ इस प्रकार उन श्रावकों की चतुरता, शिष्टता, सहजता एवं स्वस्थता के साथ उच्चारित सत्य एवं पवित्र वाणी ने भिक्षु स्वामी के मानस को ऐसा डांवाडोल कर दिया कि वे तत्काल किसी एक निर्णय पर नहीं पहुंच सके। १४४. तत्सन्मुखेषु किल केवलदत्तदृष्टि स्तेभ्यो हि वीक्षणपरोऽपरलक्ष्यशून्यः । द्वैविध्यपाशपतित: परिषत्प्रतिष्ठः, कृत्यापकृत्यपथमाकलितुं न शक्तः ॥ मुनि भिक्षु परिषद् में बैठे-बैठे श्रावकों की ओर देख रहे थे और वे श्रावक एक मात्र मुनि भिक्षु की ओर देख रहे थे। मुनि भिक्षु दुविधा में फंस गए। वे उस समय कर्त्तव्य और अकर्तव्य पथ का निर्णय करने में असमर्थ थे। १४५. एतेऽतिमात्रमतिमात्रसुपात्रसत्याः, कल्प्येत चैव कथमत्र मया ह्यसत्याः। भागे परेऽपि गुरवो गुरवो मदीया, भ्रष्टा व्रतादिति कथं प्रतिपादयामि ॥ मुनि भिक्ष ने सोचा, एक ओर ये श्रावक हैं जो सही-सही बात कह रहे हैं, इन्हें मैं झूठे कैसे कहूं ! दूसरी ओर मेरे गौरवास्पद गुरु हैं, उनके लिए भी मैं कैसे कहूं कि वे व्रतों से च्युत हो चुके हैं। १४६. आकर्षति प्रकटमेकत एव सत्य मेकत्र तत्र गुरुगौरवमानपूजा। एकत्र सत्यपुरतः प्रणतोत्तमाङ्गमेकत्र मान्यमतदुष्करमोचनं च ।।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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