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श्रीभिक्षमहाकाव्यम् १३९. तस्मात्तदर्थमवलोकय लोकनाथ !,
लोकस्य पोतपतनं प्रविलोमवातात् । नोपेक्षणीयमधुना यदपेक्षणीयमर्हन्नियोगलकुडाद् भव पोतवाहः ॥
'हे लोकनायक ! जनता की यह नया प्रतिकूल वायु से प्रेरित होकर इस संसार समुद्र में डूब न जाए, आप इस ओर ध्यान दें। यहां पर आपकी अपेक्षा ही वांछनीय है, न कि उपेक्षा। अतः हे महामुने ! आप भगवदाज्ञा रूप डांड को हाथ में लेकर जनता की इस नैया के खवैया बनें ।'
१४०. न्यायः समः परिहतो हत ! पञ्चमारे,
त्वां प्रेक्षते विशरणः शरणं शरण्य ! प्राणान्ततोऽपि परिपालय तं वरेण्य !, नास्तिक्यमेष्यति न चेच्च्युतचेतनान्तम् ॥
'आज इस कलिकाल में न्याय को आश्रय देने वाला कोई भी नहीं है। सभी उसको छोडते जा रहे हैं। हे शरण्य ! वह अब आपकी ओर सतृष्ण नेत्रों से देख रहा है। आप अपने प्राणों का व्युत्सर्ग करके भी न्याय की रक्षा करें। अन्यथा नास्तिकता का चारों ओर बोलबाला हो जायेगा।'
१४१. प्रामाणिकाध्वरहितं निहितं भवेद् य
दस्माभिरहिकजनस्तदुदीरणीयम् । अन्तर्वलज्ज्वलनतो ज्वलितं ज्वलद्भिः, क्षन्तव्यमेव भवताऽनुचितं यदुक्तम् ॥
इस प्रकार उन लोगों ने अपने अन्तर मन की सारी भावनाओं को मुनि भिक्षु के सामने स्पष्ट रूप से रखीं और निवेदन किया-'हे महामानव ! यदि हम लोगों द्वारा कोई भी प्रमाणशून्य बात रखी गई हो तो आप उसे बतलाने की पूर्ण कृपा करें। साधु संघ के दोषों को देखकर हमारे हृदय में जो दुःख की ज्वालाएं भभक रही हैं और उन्हीं ज्वलाओं की भभक से यदि कोई कटु एवं अनुचित शब्द का प्रयोग हुआ हो तो आप क्षमा प्रदान करें।'
१४२. योग्योत्तराय भवता प्रयतिष्यतेऽत्र,
शङ्कात्रिशकशकलप्रमितापि नो नः । इत्याशया वयमिमे निभृतान्तरङ्गास्तद्वारवीक्षणपरा निपुणे वसामः ॥