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________________ १३४ ११. सेतो परान्यदिशि राणकराज सिंहसम्बद्ध सौध सुषमासहितोच्चशैलः । भागे परे श्रुतमहाढयदयालुसाधुनिर्मार्पितं जिनगृहं नवखण्डमानम् ॥ समुद्र के पूर्व की ओर महाराणा राजसिंह के द्वारा निर्मित सुन्दर सौध की शोभा से सुशोभित उत्तुंग शैल खड़ा है और पश्चिम में प्रसिद्ध धन कुबेर दयाल - शाह के द्वारा निर्मित नौ खण्ड वाले जिनालय से शोभित शैल-शिखर है । इस प्रकार दोनों ओर खड़े हुए दो शिखरों से समुद्र सुशोभित हो रहा था । 1 १२. सोपानतीर्थ नवचारुचतुष्किकोच्चसोधप्रशस्तिपतो रणकीर्णकाः । रिक्तो भृतोऽपि निजसज्जनवत् सदैव, यत्नोपकृद्यदिह राजसमुद्र एषः ॥ समुद्र की पाल पर बने सोपान प्रासाद, प्रशस्ति और तोरणों से समुद्र की पर सबसे अधिक विशेषता तो इस समुद्र हो या भरा, यह प्रत्येक अवस्था में निजी ही रहा । १४. श्रेणीभवल्ललित लक्ष्मण' लक्षलीलाकूलानुकूलपरिकूजदुदारहंसैः । श्रीभिक्षु महाकाव्यम् सुन्दर घाट, नव चौकियां, राजशोभा अत्यन्त निखर रही थी । की यह थी कि चाहे यह खाली सज्जन पुरुष की भांति उपकारक १३. अन्येऽपि मानससरोवरसन्निकाशाः, पद्माकराः पुलकिताः परितोऽप्रमेयाः । नानाविहङ्गमरवेन रिरंसुकान्नु नाकारयन्त इव तंत्र तरङ्गरङ्गाः ॥ इस नगर के चारों ओर मानसरोवर के सदृश जल से भरे-पूरे दूसरे अनेक सरोवर भी थे । वे क्रीडा के अभिलाषी व्यक्तियों को नानाविध विहंगमों के शब्दों के मिष से बुला रहे थे और उनके लिए तरंगों का रंगमंच भी तैयार कर रहे थे । सौम्याः सुभिक्षशुभदृतिगणा इवान्त्र, नद्यो भ्रमन्ति जनजीवन जीवनीयाः ॥ १. लक्ष्मणः २. जीवनीयः -- जीवन के लिए हितकर । सारस (सारसस्तु लक्ष्मणः स्यात् – अभि० ४ । ३९४)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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