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पंचमः सर्गः
१५५ यहां प्राणीमात्र के जीवन के लिए हितकर तथा सुभिक्ष के संदेश को स्थान-स्थान पर पहुंचाने के लिए ये नदियां संदेशवाहिकाएं बनकर चारों दिशाओं में घूम रही हैं। उनके तटों पर सहस्रों सारस और राजहंस श्रेणियां बना-बनाकर क्रीडा करते हुए कलरव कर रहे हैं।
१५. यत्रोन्नमन्मुदिरमेदुरवमिताङ्गा- ..
स्तेजस्तडित्ततिगृहीतनिशातशस्त्राः। आखण्डलेन रिपुणेव भिदोत्थरोषाद्, योद्धं स्थिताः समुदिता गिरयः सयत्नाः ॥
इन्द्र के द्वारा अपने पंख काट दिये जाने के कारण कुपित होते हुए मानो ये पर्वत झुकते हुए काले-काले चिकने बादलों का कवच पहन, विद्युत्रूप तीक्ष्ण धार वाले शस्त्रों को धारण कर, अपने वैरी इन्द्र के साथ युद्ध करने के लिये ही मोर्चा लगा कर खड़े हैं ।
१६. आनन्त्यगाम्यपि वियत् किमियत्तयैव,
कौतुहलाच्छमकरा' इव तत्प्रमातुम् । शैला नभस्तलभिदोऽभिदुरा भिदामी,
रुध्वा स्थिता: सुरपतेः पदवीं प्रगाढाः ॥ __.. जैसे एक कर्मकर (पटवारी) जमीन को मापता है वैसे ही यहां के नभस्तल को भेदने वाले अभेद्य पर्वत पृथक्-पृथक रूप से आकाश को मापने के लिए उसे रोक बैठे और आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या अनन्त आकाश इतना ही है ! (दूसरे पक्ष में, पर्वतों ने आकाश को अपने शत्रु-इन्द्र के गमनागमन का मार्ग समझ उसको रोक कर उस पर अपना अधिकार जमा लिया।)
१७. सद्वाहिनीपरिवृता अमितस्मिताग
च्छत्रा: झरत्सलिलनिर्झररोमगुच्छाः । स्वस्य स्फुटं क्षितिपतित्वमनिह नुवाना, यत्रोनता इव नगा नगरोपकण्ठे ॥
१. श्रमकरः-कर्मकर(पटवारी)। २. भिदा-दरार (विदरः स्फुटनं भिदा-अभि० ६।१२४) ३. रोमगुच्छ:-चामर (चामरं बालव्य जनं रोमगुच्छः प्रकीर्णकम्- अभि.
३।३८१)