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________________ पंचमः सर्गः १३३ द्वारा आदर्श समुद्र एक आदर्श (शीशा) है । वह अपनी कलाओं के का काम करने में निपुण है । इसलिए यह तर्कणा होती है कि क्या नगर ने समस्त जनता के उपकार तथा उचित सुधार की दृष्टि से इसको यहां अवस्थित किया है, जिससे कि पुरुष इसमें गिरने वाले अपने-अपने प्रतिबिंबों के सौन्दर्य (अच्छाई या बुराई ) को देख सकें । ८. शिल्पिप्रकाण्डपरिकल्पितयत्सदाल्यामुद्यानमद्भुततमं निखिलर्तु रम्यम् । पौलस्त्य पूर्वमवशान्महिपीठिकायामुत्तीर्णवल्लसति चैत्ररथं किमेतत् ॥ प्रकांड शिल्प - शास्त्रियों द्वारा निर्मित उस सरोवर की पाल पर अत्यंत अद्भुत उपवन था । वह सभी ऋतुओं में मनोहारी था । ऐसा प्रतीत होता है, मानो उस उपवन की छटा को देखकर चैत्ररथ ( कुबेर - वन ) भ्रमवश राजनगर को ही पौलस्त्यपुर (देवनगर ) मानकर भूमंडल पर अवतीर्ण हुआ हो । ९. यं गोमती हृदयवत्सलकारिणीव, कल्लोलिनी कलकलध्वनिरुच्छ्वसन्ती । मातेव मोहितमतिर्मधुरं रसोघंननादैः सह सदा परिपोषयन्ती ॥ वहां 'गोमती' नामक नदी अनेक छोटे-बड़े नालों के मधुर पानी से परिपूर्ण होकर इस राजसमुद्र में आ मिलती है । वह नदी अपनी कल्लोलों के माध्यम से कल-कल ध्वनि करती हुई, माता की भांति हार्दिक वात्सल्य और ममता दिखाती हुई सदा उसको पुष्ट करती है । १०. सा पार्वतीह सरिताऽमुमृषि प्रबुद्धं, संवीक्षितुं कुतुकिनी स्वयमेव किं वा । तत्पोषणोपधिधिया मिलिता पुरैव, नीराञ्चलान्तरकृताऽमितमीननेत्रा ॥ यह वितर्कणा होती है कि क्या यह पार्वतीय नदी प्रबुद्धात्मा भिक्षु को देखने के लिए उत्कंठित होकर समुद्र - पोषण के बहाने पहले ही यहां आ गई और अपने जल के अंचल में रहने वाली असंख्य मीनरूपी नेत्र वाली बन गई ? (उसने सोचा, दो नेत्रों से देखने में तृप्ति नहीं मिलेगी । अतः उसने मछलियों के मिष से अपने असंख्य नेत्र बना लिए ।)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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