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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
४. पाल्यां परापरग'पर्वतपूरुषाभ्यां, तयोतिचारुचलचामरचञ्चुराभ्याम्। यद् बीजयन् पृषतमौक्तिकपूगपङ्क्त्या , वर्धापयन् स्मितरद: स्थितहंसवंशैः॥ ५. आदाय दक्षिणदले चलचित्रभानु, कल्लोलकेलिकलकीर्तनकान्तिकान्तः। नीराजतां तदिदमीयपुरेशितुर्यो, निर्माति पूजक इवाऽय॑जलाभिषेकात् ॥ (युग्मम्)
वह राजसमंद उस नगर (राजनगर) रूप राजा की पूजा-अर्चना करने के लिए एक पुजारी की भांति वहां आ बैठा हो, ऐसा लग रहा था । वह अपने किनारों पर पूर्व-पश्चिमगामी दो पर्वतरूपी पुरुषों की चमकरूप सुन्दर और चंचल चामरों को राजा पर निपुणतापूर्वक डुलाता हुआ, उछलते हुए पानी के बिन्दुरूप मुक्ताओं और पूगफलों से वर्धापित करता हुआ, वहां बैठे हुए हंस आदि पक्षियों के मिष से मधुर मुस्कान बिखेरता हुआ, दाहिनी ओर से चलाचल सूर्य के प्रतिबिम्ब से आरती उतारता हुआ, कल्लोलों की उछलकूद से उत्पन्न मधुर संगीत से कीर्तन करता हुआ, अर्घ्यजल से अभिषेकपूर्वक अर्चना करता हुआ-सा प्रतीत हो रहा था। ६. क्षारं निजं पुनरपेयकलङ्कपत, श्लिष्टं चिरादनुपयोगिपुटं प्रमाष्टुम् । एतो यतोऽभिमतवान् न जहाति सङ्ग, सत्सङ्गतिर्मतिमता परिहीयते किम् ॥
___ समुद्र चिरकाल से चले आ रहे अपने कलंक- यह क्षार है, अपेय है-को धोने के लिये ही मानो यहां आया और इस नगर की सेवा में संलग्न हो गया। अब वह कभी भी इस नगर का संसर्ग छोड़ना नहीं चाहता। क्या मतिमान् पुरुष कभी सत्संगति को छोड़ना चाहता है ? ७. आदर्शकार्यकरणे कशलः कलाभिस्तस्मात् पुरेण किमसौ सकलोपकृत्यै । संस्थापितो निजनिजप्रतिबिम्बमान
सौन्दर्यमीक्षितुमुदारसुधारदृष्टया ॥ १. परापरग-पूर्व-पश्चिम । २. चञ्चुरं--निपुण । ३. नीराजनम्-शस्त्रास्त्रपूजा। .. ४. आ-समन्तात्, इतः-प्राप्त:-एतः।