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________________ पञ्चमः सर्गः १.श्रेयस्कराण्यथ जिनेन्द्रपदाम्बुजानि, सम्पूज्य भक्तिभरितो भवनाशनाय । व्यावर्णयामि विनयेन नयेन भिक्षुद्रव्यर्षिजागरणकारणतामिदानीम् ॥ अब मैं भव-भ्रमण की परिसमाप्ति के लिए भक्तिपूर्ण भावों से परिपूर्ण होकर कल्याणकारी प्रभु-पंकजों में प्रणाम करता हूं और विनयपूर्वक मुनि भिक्षु के भावी-प्रतिबोध के कारणों का न्याययुक्त विवरण प्रस्तुत करता हूं। २. आचारवेदिपरिवेदितमेदपाटे, राजादिनाम नगरं नगरं गरीयः। पारे गिरां गरिमगौरवमेतदीयं, बोधिस्थलं यदऽभवद् गणिभिक्षुभिक्षोः ॥ आर्य भूमि के नाम से प्रसिद्ध मेवाड़ देश में राजनगर नाम का बड़ा नगर है। उस नगर का गरिमामय गौरव वर्णनातीत है। वही नगर आर्य भिक्षु का बोधि-स्थल बना। ३. एतद् भविष्यदऽदसीयमुनीश्वरस्य, नीलारवृन्दसुदृशामरविन्दबन्धुः। भावीति सेवितुमना: सुमनाः समागात्, सोऽयं समुद्र इह राजसमुद्रदम्भात् ॥ वही नगर भविष्य में मुनि भिक्षु के आन्तरिक नयन कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के समान सिद्ध होगा, ऐसा विचार करके ही मानो समुद्र-राजसमुद्र (राजसमन्द) के मिष से पहले से ही इस नगर की सेवा करने के लिये यहां आ बैठा हो । १. अरविन्दबन्धुः-सूर्य। .
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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