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चतुर्थः सर्गः
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गुरु की शिक्षाएं उनके स्वच्छ हृदय में वैसे ही प्रतिबिम्बित हो रही थीं जैसे निर्मल दर्पण में रश्मियां और उनके शरीर पर निखरता हुआ वैराग्य उनकी श्रामणीय वेशभूषा से न्यून नहीं था ।
६०.
• तच्छिक्षिताचारविचक्षणस्य का नाम सूक्ष्माऽनवधानताऽपि । मन्त्राभिमन्त्रायितमानवस्य किं राक्षसी यातुमधीश्वरी स्यात् ।
गुरु से आचार - विधि की शिक्षा पाने वाले उस विलक्षण शिष्य को सूक्ष्म अनवधानता - प्रमत्तता भी वैसे ही नहीं छू पायी जैसे मंत्र से अभिमंत्रित पुरुष को एक राक्षसी ।
६१. एनांसि भूयांस्यपि भूरिशक्त्या, स्प्रष्टुं न शक्तानि भवेयुरेतम् । एणव्रजोऽतीव परिप्लवः किमेणाधिनाथं सविधं समीयात् ॥
प्रचुर पाप अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग करके भी मुनि भिक्षु का स्पर्श करने में समर्थ नहीं हुए । क्या अत्यंत चपल मृगों का यूथ भी सिंह के समीप उपस्थित हो सकता है ?
६२. किन्त्वत्र सिद्धान्तयथार्थतायुक्- स्वाचा रकल्पप्रतिकल्पकानाम् । अध्यापनं संस्थगितं पुरंव, पोल्लप्रथोद्घाटनसाध्वसेन ॥
उस सम्प्रदाय में पोल खुल जाने के भय से सैद्धान्तिक यथार्थता युक्त साधुओं का आचार-विचार और कल्पाकल्प का अध्ययन-अध्यापन तो पहले ही स्थगित था ।
६३. अभ्यासयेद् वा स्वरुचिप्रकारात्, शैथिल्यसङ् क्लिष्टपरम्परावत् । जिज्ञासिताभिः स मत्तथैव, सह्याथि पुंवत् सतताऽभियोगः ॥
यदि अध्ययन करवाते तो भी अपना मनमाना तथा अपनी शिथिल परंपरा के अनुरूप ही, तब वे भिक्षु भी जैसे अध्ययन करवाते वैसे ही जिज्ञासु वृत्ति से सतत उत्साह के साथ अध्ययन करते जाते, जैसे कि आरोग्यार्थी पुरुष वैद्य के कथनानुसार ही अपनी प्रवृत्ति करता है ।
६४. स्तोकादनाबाधगतिर्बभूव स्तोकेषु भङ्गेषु समीरवत् सः । आदित्सुरेषोऽस्ति पुनः पवित्रजैनागमाम्भोनिधि रत्नराशिम् ॥
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अल्प समय में ही थोकड़ों तथा भङ्गों के अध्ययन में उनकी गति
वायु की तरह अनाबाध हो गई, फिर भी पवित्र आगम- सिन्धु की अपार राशि को प्राप्त करने के लिए उनका मन सतत प्रयत्नशील बना रहा ।
१. सह्यः - आरोग्य (सह्यारोग्ये अभि० ३।१२८)
२. अभियोग : - उत्साह (अभियोगोद्यमी प्रौढिः
- अभि० २।२१४)