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________________ ११६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ६५. जैनागमानां पठनं गृहिभ्योजिननिषिद्धं ननु पाठनं च । सीमा निबद्धा शमिनां कृतेऽपि, किन्त्वत्र तत्कल्पविपर्ययो हि ॥ जिनेश्वर देव ने गृहस्थों के लिए जैनागमों के पठन-पाठन का मूलतः ही निषेध किया है और संतों के लिए भी आगमों के पठन-पाठन की सीमा निर्धारित की है। परन्तु इस सम्प्रदाय में इस कल्प का विपर्यय ही थाअर्थात् आगमों के अध्ययन-अध्यापन के लिए कोई भी मर्यादा नहीं थी। ६६. तस्माद्यवेतं प्रथमे हि वर्षे, द्रागाऽऽमनन्त' वरपञ्चमाङ्गम् । सम्यनिभाल्याऽतिशयात् कृतं कैराश्चर्यदोलान्तरदोलनं न ॥ इसीलिए आचार्य रघुनाथजी ने इन्हें प्रथम वर्ष में ही पांचवें अंग आगम भगवती सूत्र का अध्यापन करवाना प्रारम्भ कर दिया। भिक्षु को प्रथम वर्ष में ही भगवती का सम्यग् अध्ययन करते देख, ऐसा कौन था जो आश्चर्य के झूले में नहीं झूला हो ! . ६७. सूक्ष्मातिसूक्ष्माण्यनुयोजनानि, सैद्धान्तिकानि प्रणयेन बोद्धम् । संरक्षयन् स्वं बहुधा गुरुं स, सन्देहसिन्धौ न निपातुकः किम् ॥ सूक्ष्मातिसूक्ष्म सैद्धान्तिक व्याख्याओं का विनयपूर्वक अवबोध करने के लिए वे तर्क-वितर्क करते और अपनी बात को सिद्ध कर गुरु को भी अनेक बार संदेह-सिंधु में निमग्न कर देते। ६८. कल्पापकल्पाश्रयपृच्छनाभिरान्दोलितो येन विचारमग्नः । किन्त्वऽन्यथा नो स्थितिरेतयोश्च, जाता कदाऽपि प्रबुभुत्सुभावात् ॥ कभी कभी कल्प-अकल्प संबंधी प्रश्नों के विषय में जब आप अपने गुरु से कुछ पूछते तब गुरु स्वयं ही विचारमग्न हो जाते । चाहे कुछ भी क्यों न हो, पर आपकी जिज्ञासा वृत्ति होने के कारण आपमें तथा गुरु में कभी भी किसी प्रकार की अन्यथा स्थिति नहीं बनी। ६९. अत्यल्पकालेन कलिन्दिका'ऽस्मै, पात्राय रुच्या गुरुणा प्रदत्ता। सङ्ग्राहफेनाऽऽपटुनाऽमुनाऽपि, पीतान्धि'पीतस्वगुरूक्तिसिन्धुः॥ १. म्नां अभ्यासे इति धातोः रूपम् । २. कलिन्दिका-आन्वीक्षिकी आदि विद्याएं (कलिन्दिका सर्वविद्या अभि० २।१७२) ३. पीताब्धिः--अगस्त्यमुनि (अगोस्त्योऽगस्तिः पीतान्धिः-अभि० २।३६)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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