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________________ श्री भिक्षु महाकाव्यम् ऐसे शिष्य को पाकर आचार्य रघुनाथजी वैसे ही सुशोभित होने लगे जैसे बुद्ध नक्षत्र से चन्द्रमा, मकरध्वज से कृष्ण, सूर्यपुत्र रेवंतक से सूर्य और इन्द्रपुत्र जय से इन्द्र । ११४ ५५. तेजस्विनं शैक्षममुं नवीनं, निर्वर्ण्य निर्वर्ण्य ललामभूतम् । मेने स्वयं साधुपतिः स्वकीयं, लोकोत्तमं भाग्यविजृम्भणत्वम् ॥ ऐसे ललामभूत तेजस्वी नये शिष्य को देख-देखकर स्वयं आचार्य ने अपने भाग्योदय' को लोकोत्तम माना । ५६. नंनम्यमाना जनता जजल्प, जाताः कृतार्था अमुना भवन्तः । ardhar'sङ्गभुवाsपचिन्ता:, क्षोणीभृतो भाग्यवता यथाऽत्र ॥ गुरु के चरणों में बार-बार वंदना करते हुए लोग कहने लगे'गुरुवर ! आप इस शिष्य को पाकर वैसे ही कृतार्थ हो गए जैसे किसी दीर्घायु और भाग्यशाली राजकुमार को पाकर राजा निश्चिन्त हो जाता है । ५७. इत्थं समुल्लापकलापकेन पीयूषपानं रचयन् स तेन । चिक्रोड भूमौ विपिने यथैव, यूथाधिनाथः कलभेन कम्रः ॥ इस प्रकार जनता के आलाप - संलाप का अमृतपान करते हुए आचार्य रघुनाथजी उस शैक्ष शिष्य के साथ वैसे ही विचरण करने लगे जैसे वनप्रदेश में सुंदर गजेन्द्र अपने कलभ के साथ विचरण करता है । ५८. एष प्रणेयो' विनयी नयेन, गुविङ्गिताकारविशारदश्च । गुर्वादरोप्यद्भुततद्विनेयसंवादिसंवादपथप्रसारी ॥ शैक्ष मुनि भिक्षु अनुशासित, व्यवहार और आचरण से विनीत तथा गुरु के इंगित और आकार को जानने-मानने में निपुण था । गुरु का उसके प्रति आदर - वात्सल्यभाव भी अद्भुत था और वह भिक्षु के विनय का संवादी अर्थात् विनय के अनुरूप तथा उसकी विनयशीलता के संवाद को फैलाने वाला था । ५९. शिक्षा शुभाऽस्मिन् प्रतिबिम्बितात्मदर्शे प्रसृष्टे किरणावलीव । वैराग्यभूषा शुशुभे यदङ्गे, दीक्षार्थसञ्जातवरान् न दस्रा ॥ १. जैवातृकः - दीर्घायु (जैवातृकस्तु दीर्घायुः - अभि० ३।१४३ ) २. प्रणेयः - अनुशासित ( वश्यः प्रणेयो - अभि० ३।९६ )
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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