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________________ तृतीयः सर्गः ५३. भवार्णवात् तर्तुमुदग्रभावादयं समुत्कः किमु वीक्षसे त्वम् ? प्रयच्छ शिष्टि भव पुण्यकार्ये, विभागिनी भागिनि ! भद्रभद्रे ! रघुनाथजी ने दीपां से कहा - 'हे महाभागिनी ! हे भद्रे ! तुम्हारा यह सपूत संसार-समुद्र को तैरने के लिए उद्यत हो रहा है । तुम क्या देख रही हो ? दीक्षा की आज्ञा देकर इस पुण्य कार्य में तुम भी सहभागी बनो ।' ५४. तयोच्यते श्रीगुरुराज ! पुत्रो, मदीय एष क्षितिपालचन्द्रः । भविष्यति श्रेष्ठतमः प्रभावी, तदाशया तत्र ममावरोधः ॥ दीपा ने कहा - 'गुरुदेव ! मेरा यह पुत्र संसार में श्रेष्ठ और प्रभावी राजा बनेगा । इसी आशा से मैं इसकी दीक्षा का निषेध कर रही हूं ।' ५५. गुरो ! वचो मे नहि निनिमित्तं निजानुभूतं कथयामि तावत् । निरस्तविक्षिप्तमनाः श्रुतार्ह श्रुतातिथेयं विदधातु सम्यक् ॥ 'आर्यवर्य ! मेरा यह कथन निर्हेतुक नहीं है । मैं अपनी अनुभूति आपको सुना रही हूं | आप स्वस्थचित्त होकर, सुनने योग्य मेरे कथन को सम्यक्रूप से सुनें ।' ५६. विकीर्णसङ्कीर्णसटो' बलिष्ठ, उदस्तताटङ्क' वदुच्चपुच्छः । निनादनिर्नादितदिग्गजेन्द्रः, पिशङ्ग 'नेत्रांशु विहस्तशम्पः ॥ ८५ ५७. एकोऽपि निर्भीकमयूखवीङ्खः ", प्रकृष्ट निर्मन्तुक 'जन्तुशङ्कः । अद्वैतगौराङ्गविभाविसारी, वितर्कणातीत विभुत्वधारी ॥ ५८. नृसिंहसूची नभसाऽवतारी, मदास्यगौहान्तरसद्विहारी । अमुं च गर्भे सुधिया दधत्या, महामृगारिर्मयका व्यलोकि || .... (त्रिभिविशेषकम् ) १. सटा – जटा (जटा सटा -- अभि० ३।४८० ) २. ताटङ्कः — कुंडल (ताटङ्कस्तु ताडपत्रं कुण्डलं अभि० ३।३२० ) ३. पिशंग : - पीतमिश्रित लाल (पिशंगः कपिशो हरिः - अभि० ६ । ३२ ) ४. शम्पा - विद्युत् (विद्युत् चला शम्पाऽचिरप्रभा - अभि० ४।१७० ) ५. वीङ्खा - गमन ( गतौ वीङ्खा विहारेय अभि० ६।१३६) ६. मन्तुः - अपराध ( अपराधस्तु मन्तुः -- अभि० ३।४०८ )
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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