________________
८४
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'मेरा जीवन मरणाश्रित न हो, शरीर रोगों से परिमदित न हो, यौवन जरा-जर्जरित न हो और विपत्ति संपत्ति का हरण न करे- मां ! यदि तुम मेरी ये चारों बातें पूरी कर सको तो मैं दीक्षा के लिए, अभिनिष्क्रमण के लिए कभी नहीं कहूंगा और यदि ऐसा न हो सके तो फिर मैं गृहवास में नहीं रहूंगा।' ४८. असाध्यमेतज्जननी निशम्य, जगाद सम्वादमिमं विमुञ्च । असंभवात्यर्थमनोमनीषा, जनोपहासाय भवेदवश्यम् ॥
पुत्र की इन चारों असाध्य मांगों को सुनकर मां ने कहा--'वत्स ! इन बातों को छोड़ । असंभावित के लिए अत्यंत उत्सुकता लोक में अवश्य ही उपहासास्पद होती है।' ४९. प्रणीय कर्णातिथितां तदुक्तिं, गभीरवाचा पुनरुत्ततार । ततो ज्वलज्ज्वालितविश्ववहूर्वजन्न वार्यः कृपया भवत्या ॥
माता की वाणी को सुनकर भिक्षु ने गंभीरता से उत्तर देते हुए कहा, 'मां ! सुलगती हुई इस विश्व-वन्हि से निकलने के लिए उद्यत अपने पुत्र को आप कृपा कर न रोकें ।'
५०. अतृप्तमेते विषयाः प्रतार्य, वियुज्य गच्छन्ति भवे भवे माम् । __ यतोऽधुना तान् ननु पूर्वमेव, विमोक्तुकामः सुकृताय सद्यः ॥
_ 'ये विषय-भोग प्रत्येक जन्म में धोखा देकर अतृप्त अवस्था में ही मेरे से वियुक्त होकर जाते रहे हैं । अब मैं उनके वियुक्त होने से पूर्व ही अपने कल्याण के लिए उनको छोड देना चाहता हूं।' ५१. यदीष्यते सूनुसुखं तदानी, समीर्यतां संयमितुं त्वयाऽहम । विधीयते किं समयातिवाहो, विवाह्यतां मोक्षकनी' वरिष्ठा।।
'यदि तुम पुत्र को सुखी देखना चाहती हो तो मुझे संयम ग्रहण करने की प्रेरणा दो। मां ! तुम मेरा पाणिग्रहण मोक्षरूपी श्रेष्ठ कन्या के साथ करा दो । समय का अतिक्रमण क्यों कर रही हो ?' ५२. विबोध्यमानापि न दित्सुराज्ञां, भविष्यदाशाप्रतिबद्ध रागा ।
तदा स्वयं श्रीरघुनाथसूरिरवातरत् तत्प्रतिबोधनार्थम् ॥ ___ इतना समझाने पर भी भावी आशाओं से प्रतिबद्ध दीपा मां का अनुराग दीक्षा की आज्ञा देने के लिए तत्पर नहीं हुआ। तब स्वयं आचार्य रघुनाथजी मां दीपां को प्रतिबोध देने के लिए वहां आए । १. कनी--कन्या (कन्या कनी कुमारी च-अभि० ३।१७४)