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________________ तृतीयः सर्गः ४२. निजार्थमात्रेण समे स्वकीयास्तदत्यये कोऽपि न कस्य रक्षी । सुपक्वधान्येषु समागताम्भोधरं नरः साधु तिरस्करोति ॥ 'हे अम्ब ! स्वार्थमात्र से सभी अपने हैं । स्वार्थ की पूर्ति हो जाने पर कोई किसी का नहीं है । कृषि के प्रारंभ में मेघ सत्कृत होता है पर फसल के पक जाने पर यदि मेघ उमडता है तो वह कृषकों द्वारा अत्यंत तिरस्कृत होता है ।' ४३. वधूः समेताऽपि गता तदानों, पराऽमरीभूय समेष्यते किम् । भवन्त एवात्र निरन्वयायन्, निरर्थकः शोकममत्वबन्धः || 'हे मां ! आपने नववधू लाने की बात कही, परंतु जो वधू आई थी, वह भी चली गई तो क्या आने वाली दूसरी वधू अमर बनकर आएगी ? इस संसार में कोई किसी के पीछे चलने वाला नहीं है तो फिर शोक और ममत्व-बंध निरर्थक है ।' ४४. पुरा गमी कोऽनुगमी परत्र, प्रतीयते केन विचक्षणेन । तदा कथं विश्वसिमि म्रिये चेदपान्तराले ललनेव तत् किम् ॥ ८३ 'कौन विचक्षण व्यक्ति यह जान सकता है कि पहले मरने वाला कौन है और बाद में मरने वाला कौन है ? तो फिर मैं कैसे विश्वास करूं कि मैं पहले नहीं मरूंगा ? यदि मेरी पत्नी की तरह ही मैं भी आपके जीवन काल में ही मर गया तो फिर क्या होगा ? , ४५. निवर्त्तयेस्त्वं मरणं मदीयं, गदान् समस्तान् परिवर्जयेश्चेत् । जरां शरीरादसुखात् सुखञ्च ततो निदेशं नहि मार्गयामि ॥ 'मां ! यदि तुम मुझे मृत्यु से बचा सकती हो, सारे रोगों को दूर रख सकती हो, शरीर में वार्धक्य न आए, ऐसा कर सकती हो और दुःख को मिटा सुख को ला सकती हो तो फिर मैं दीक्षा के लिए आज्ञा नहीं मांगूगा ।' ४६. न जीवितं मे मरणाश्रितं स्याद्, गदैर्न गात्रं परिर्मादितं स्यात् । न यौवनं मे जरसाभिभूतं, हरेन्न सम्पत्तिमिमां विपत्तिः ॥ ४७. इमान् मदीयांश्चतुरोऽपि भावान् प्रपूरयेस्त्वं न ततो ब्रवीमि । न दीक्षितुं निष्क्रमितुं न वच्मि, ततोऽन्यथा नो निवसामि गेहे ॥ ( युग्मम् )
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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