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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'वत्स ! पति मुझे छोड़कर चल बसे और पुत्रवधू भी दिवंगत हो गई । अब तू अकेला जीवित है और तू भी मुझे छोड़कर चला जा रहा है । तू दयालु है । तेरी यह कैसी दया ?' ३७. त्वमेव जन्मार्णवयानपात्रं, त्वमेव जन्मान्धगृहप्रदीपः । त्वमेव जन्मैकसहायभूतः, कथं तदा निष्क्रमितुं बदामि ॥
हे कुलदीप ! तू ही इस जन्मरूपी समुद्र का यानपात्र है, तू ही इस जन्मरूपी अन्धगृह का दीपक है और तू ही मेरे इस जन्म का एक मात्र सहायक है। ऐसी स्थिति में मैं तुझे दीक्षा की आज्ञा कैसे दे सकती हूं?'
३८- दयस्व मां वीर इवाऽत्र वीर !, गृहाण मा तन् मयि जीवितायाम । गवेषय त्वं जनिमजलास्यं, मनुष्व मां मा वद किञ्चिदत्र ।
'हे वत्स ! श्रीवीर प्रभु की भांति तू भी मेरे पर दया करके मेरी जीवित अवस्था में तो दीक्षा मत लेना। तू नई सुन्दर वधू के लिए प्रयत्न कर । तू मेरी बात मान और इस विषय में मुझे कुछ मत कह ।' ३९. तदा प्रसूमोहमपोहितुं स, प्रशान्तचेताः प्रतिवक्ति वल्गु । ज्ञपूर्ववैराग्यरतो मृगाभूर्यथा तथा नम्रगिरा गिराय॑ः ।।
ज्ञानगभित वैराग्य के धारक प्रशान्तचेता भिक्षु ने माता के मोह को निरस्त करने के लिए अपनी नम्र और स्तुत्य वाणी के द्वारा मृगापुत्र की भांति माता को उत्तर देते हुए कहा४०. अनन्तकृत्वो भवरङ्गमञ्चे, तनूजमातृप्रभृतिप्रसङ्गाः । कृता विमुक्ता नटवत्प्रवेषैरनेन जीवेन मिथः स्वकृत्यैः ।।
'हे अम्ब ! इस संसार रूपी रंगमंच पर माता, पुत्र आदि के संबंध अनन्त बार हो चुके हैं और नटवेष की तरह न जाने इस जीव ने किन-किन के साथ कितनी बार संबंध जोड़ा है और कितनी बार तोड़ा है।'
४१. व्रतान्निरोद्धं प्रभवा सवित्रि!, तथैव कि दुर्गतितो भवित्री । न चेत् कथं निर्जरसं च मृत्युञ्जयं भवन्तं प्रतिषेधयित्री ॥
'हे मात ! जैसे तुम दीक्षा लेने से मुझे रोकने में समर्थ हो तो क्या वैसे ही दुर्गति में गिरते हुए मुझको रोकने में भी समर्थ हो सकोगी ? यदि नहीं तो फिर अजर-अमर गति की ओर जाते हुए मुझको क्यों रोक रही
हो ?'
१. निर्जरसं-वृद्धावस्था से शून्य ।