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________________ ८१ तृतीयः सर्गः ३१. चमत्कृता सम्भ्रमिता ततः सा, जजल्प कि वक्षि ? किमङ्ग ! वक्षि । उवथ तत् कर्णकटुं प्रकृष्टं, पुनस्तथा मा वद मा वद त्वम् ॥ भिक्षु की इस बात को सुनकर मां दीपां चौंकी और ससंभ्रम बोली'वत्स ! तू क्या कह रहा है ? क्या कह रहा है ? तूने जो कहा वह अत्यंत कर्णकटु है । पुनः ऐसी बात मत बोल, मत बोल । ३२. नवाश्रुनीरावतलोचनाभ्यां, विलोकयन्ती सुरभीव वत्सम् । मुहुर्मुहुर्गद्गदरुद्धगोभिर्जगाद दीपा कुलदीपकं तम् ॥ जैसे गाय अपने बछड़े की ओर देखती रहती है, वैसे ही आंसुभरे । नेत्रों से पुत्र की ओर देखती हुई दीपां मां ने गद्गद वाणी से अपने कुलदीपक लाल को कहा३३. क्षमा न सोढुं वचनावली तां, विभेदकी हृदयान्तरस्य । किमब्जिनी पद्मसरोवरस्था, सहेत पौष्यां सबलां हिमानीम् । 'वत्स ! हृदय को विदीर्ण करने वाली तेरी इस वाणी को मैं वैसे ही सहन नहीं कर सकती जैसे पौष महीने के प्रबल तुषारापात को पद्म सरोवर में रहने वाली कमलिनी ।' ३४. न चारुतामञ्चति भारती ते, वराप्यवेला सुविलासकाले । दिनोदये दीपशिखा न दिव्या, न चन्द्रलेखारुचिराऽपि रुच्या । 'सूर्योदय हो जाने पर जैसे दीपशिखा शोभित नहीं होती और सुन्दर चन्द्रकिरण भी रुचिकर नहीं लगती, वैसे ही सुविलास की इस वेला में तेरी यह अच्छी बात भी प्रासंगिक नहीं लगती। ३५. त्वदास्यपीयूषनिपानमात्रात्, त्वदाप्तृदुःखान्तरिता प्रवृत्ता । परं स्नुषामृत्युनवात्तिमूढां, कथं विमोक्तुं त्वरसे सुपुत्र ! 'हे कुलाधार ! तेरे मुखारविंद के अमृतपान से मैं तेरे पिता के वियोग को भूल चुकी थी, पर अभी तेरी वधू की इस मौत की पीड़ा से मैं मूढ-सी बन रही हूं, अतः ऐसी दुःखित अवस्था में तू मुझे छोड़ने की क्यों जल्दी कर ३६. दिवंगतो मां प्रविहाय कान्तः, स्नुषाऽपि तामेव गति प्रपन्ना । विमुच्य जीवन्नपि यासि मां तद्, दया दयालोस्तव कीदृशीयम् ॥ . १. उवक्थ ---- वचंक भाषणे इत्यस्य धातो: रूपम् । २. हिमानी-हिमपात (हिमानी तु महद्धिमम्-अभि० ४११३८)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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