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श्रीमिक्षुमहाकाव्यम् २६. निरंतरं वै विविधैः प्रकारैश्चयंश्चयंश्चारुसहिष्णुभावान् ।
बभूव पक्वः श्रमणत्वयोग्यः, प्रयत्नतीव्र निपुणोऽन्यदा सः ॥ २७. स्मिताननः स्निग्धविरागदिग्धः, स्वमातरं प्राह ममत्वमुक्तः । प्रवश्मि' दीक्षां स्फुरदात्मशिक्षा, प्रयच्छ हर्षादनुशासनं मे ॥ (युग्मम्)
ऐसे अनवरत विविध प्रकार से सहिष्णुता की पुष्टि करते हुए, अनेक कष्टों को झेलते हुए आप इस निर्णय तक पहुंचे कि, अब मैं इस संयम पथ में उपस्थित होने वाले सभी कष्टों को सहन करने योग्य बन चुका हूं। ऐसा सोचकर किसी प्रसंग पर उस अन्तरंग वैराग्य के धारक भिक्षु ने मातृमोह को दूरकर मुस्कराकर अपनी माता से कहा-'हे मात ! जहां केवल आत्मकल्याण की ही शिक्षा मिलती है ऐसी जैनी दीक्षा को मैं स्वीकार करना चाहता हूं। अतः इस कार्य में आप मुझे सहर्ष आज्ञा प्रदान करें।'
२८. महाव्रतं रक्षयितुं तृतीयं, जिनेन्द्रदेव नियमः सदैव ।
अधिष्ठिताज्ञाग्रहणस्यरूढीकृतस्ततोऽभ्यर्थयितुं समुत्कः ॥
__ 'तीर्थंकरों ने तीसरे महाव्रत (अचौर्य) की रक्षा के लिए यह शाश्वत नियम बना दिया कि अभिभावकों की आज्ञा के बिना जैनी दीक्षा संभव नहीं हो सकती । इसीलिए मैं आपसे यह प्रार्थना कर रहा हूं।' २९. अरं भवाम्भोनिधिसेतुबन्धमिवाऽववाद दिश मे व्रताय । न विघ्नयेदात्मजनं हितार्थी, महोदयश्रीप्रतिसम्मुखीनम् ॥
'मां ! दीक्षा विषयक आपकी आज्ञा संसार-सिन्धु को पार करने के लिए सेतुबंध के समान है। आप शीघ्र ही आज्ञा देकरं कृतार्थ करें। महान् उदय की ओर प्रस्थित आत्मीय जन के प्रशस्त पथ में हितेच्छु व्यक्ति को बाधा उपस्थित नहीं करनी चाहिए।'
३०. असातसम्पातगृहस्थवासात्, सनातनं मन्दिरमारुरुक्षुः । विमुच्य मोहं निकुरुम्बमम्बाऽद्य मा विलम्बस्व मदिष्टयोगे ॥
'दुःखों से भरे इस गृहस्थाश्रम के वास से छूटकर अब मैं शाश्वत सुख प्रदान करने वाले मोक्ष मंदिर के आवास में जाना चाहता हूं। अत: आप मोह के जाल को छिन्न-भिन्न कर दें। मां ! मेरे इस पुनीत योग में विलम्ब न करें।' १. वशक् कान्तौ इत्यस्य धातोः रूपम् । २. अरं-शीघ्र (द्राक् स्रागरं झटित्याशु-अभि० ६।१६६) ३. अववाद:-आज्ञा (आज्ञा शिष्टि:...""अववाद:-अभि० २।१९१)