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तृतीयः सर्गः
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वस्त्र, अलंकार, सुगंधित पदार्थ, माला, स्त्री और सुकोमल शय्या आदि प्राप्त होने पर भी जो स्वतन्त्रता से इन सब श्रेष्ठ भोगों को अध्यात्म की विशुद्ध भावना से ठुकरा देता है, वही वास्तव में त्यागी है, यह भगवद् भाषित सिद्धांत ही प्रमाण है ।
२२. व्रतित्वयोग्यत्वमपेक्षितुं स्वं स भिक्षुरुत्तोलयितुं प्रवृत्तः ।
परीक्षितं कार्यमनिन्द्यमीप्स्यं, विपश्चितां तापकरं न कहि ॥
'संयम पथ अत्यन्त दुर्गम है । मैं इसके योग्य हूं या नहीं', ऐसा सोचकर ही वे अपनी आत्मशक्ति को तोलने लगे, क्योंकि परीक्षापूर्वक किया गया कार्य न तो निन्दनीय ही होता है और न मनीषियों के लिए पश्चात्ताप का कारण ही ।
२३. सुदुष्करं पक्वजलं हि पेयं, परीक्षणीयं प्रथमं तदेव ।
करीरनिःस्त्रावमतोऽन्यदा स स्वयं गृहीत्वाऽभृत ताम्रपात्रे ॥
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२४. निधाय भूतिं विधिवत् तदन्तविगोप्य कालात् कृतवस्त्रपूतम् । निपीय निःस्वादपरं प्रमाणीचकार कष्ट सहने बुभूषुः ॥
( जैन मुनि सजीव जल का उपयोग नहीं करते । वे 'पका' अर्थात् निर्जीव (अचित्त) जल का ही उपयोग करते हैं । आगमों में अचित्त जल के २१ प्रकार निर्दिष्ट हैं । उनमें से एक है – कैर का उबला हुआ जल । इसकी पीना अत्यन्त कष्टप्रद होता है ।) अपनी क्षमता के परीक्षण के लिए स्वयं भिक्षु ने, कैरों के उबले हुए पानी को, जो ओसामण के नाम से प्रसिद्ध है, ताम्रपत्र में भर, उसमें राख मिलाकर कहीं एकान्त में रख दिया और कुछ समय पश्चात् उसे कपड़े से छानकर समभाव से पी भी लिया । वह अत्यंत कड़वा एवं कषैला था । आपने वैसे पानी का पान ही नहीं किया, पर साथ ही साथ यह निश्चय भी कर लिया कि ऐसे कष्टों को मैं सहने में समर्थ हूं ।
२५. गृहीतदीक्षावधितो यदर्थं जगाद भिक्षुर्न तथाsत्र कष्टं
( युग्मम् )
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गुणाश्रमाब्दे मुनिहेमराजम् । मयाऽनुभूतं न तथा प्रसूतम् ॥
दीक्षा के ४३ वर्ष बाद किसी प्रसंग पर आपने अपने अनन्य शिष्य मुनि हेमराजजी से कहा- अरे हेम ! गार्हस्थ्य जीवन में उस ओसामण के जल को पीने से जो मुझे कष्टानुभूति हुई वैसी संयम जीवन में नहीं हुई और न फिर वैसा पानी पीने का ही अवसर आया ।