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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
१६. करम्बित: ' स्नेहरसेन किञ्चिद्, दुरन्तमोहं परिहृत्य तावत् । समाप्य पञ्चत्व' क्रियाः प्रियाया:, स भिक्षुरुत्तालतरो व्रतित्वे ॥
भिक्षु का अपनी पत्नी के प्रति स्नेहरस से मिश्रित सघन मोह था । उसे दूर कर वे अपनी पत्नी की अन्त्येष्टी आदि क्रियाओं से निवृत्त होकर संयम ग्रहण के लिए उतावले हो गए ।
१७. समुत्सुकाः श्रेष्ठिवरास्तदानीं प्रदित्सवः स्वस्वककान्तकन्याः । उपेयिवांसो न कियन्त आशु, चटूत्वलापान्न पराङ्मुखास्ते ||
तब शहर के धनी-मानी व्यक्तियों ने अपनी-अपनी कान्त कुमारियों के साथ पुनः विवाह की प्रेरणा देते हुए भिक्षु के पास आए और अत्यंत नम्रता से प्रार्थना करने लगे । पर भिक्षु अपने पथ से पराङ्मुख नहीं हुए ।
१८. न रागिनीमिच्छुरुदाहरत्तान्, विहाय यैवं सहसा प्रयाति । विरागिनीं मोक्षरमामभीप्सुः, कदाऽपि मां नैव मुमुक्षुरुत्का ॥
भिक्षु ने कहा- मैं अब राग उत्पन्न कर हठात् चली जाने वाली रागिनी – कामिनी का इच्छुक नहीं हूं। मैं तो अब उस मुक्तिरूप विरागिनी रमा का ही इच्छुक हूं जो कभी मुझे छोड़कर जाने वाली नहीं है ।
१९. अलं सुखैर्वैषयिकॅरनहै:, प्रवञ्च कैरूजित दुःखमूलैः ।
मितभाषी भिक्षु ने स्पष्ट रूप से कारण, अयोग्य तथा प्रवंचक इन वैषयिक है । अत: अब आप पधारें। आपका मार्ग प्रशस्त हो । '
अतो भवद्भ्यः शिवमस्तु पन्था, जजल्प जल्पाल्पविकल्पशीलः ॥ उनसे कहा - 'समस्त दुःखों के मूल सुखों से भी मुझे क्या लेना-देना
२०. समे तदुक्त्या स्मयमानयन्त, अहो अहो साधुगिरा गिरन्तः | यदर्थमावर्त्तकरी त्रिलोकी, तदर्थमीदृग् ननु विस्पृहोऽयम् ॥
तब आगन्तुक व्यक्ति उनकी ऐसी युक्तिसंगत बात पर गर्व करते हुए, धन्यवाद देते हुए, परस्पर इस प्रकार कहने लगे – 'अहो ! जिस कामिनी के लिए तीन लोक लालायित रहता है उसके लिए ये कितने निस्पृह हैं !"
२१. वस्त्राद्यलङ्कारसगन्धमाल्यान्, स्वतन्त्रतो लब्धललामभोगान् ।
जहाति योऽध्यात्म विशुद्धभावात्, त्यागी स एवाऽत्र जिना: प्रमाणम् ।।
१. करम्बितः - मिश्रित ( करम्बः कबरो मिश्र : - अभि० ६ । १०५ ) २. पञ्चत्वं - मृत्यु (पञ्चत्वं निधनं नाशो - अभि० २।२३८ )