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तृतीयः सर्गः
११. यतः परेषां किमु रक्षणाशा, जहाति यो नो पितरौ कथञ्चित् । सदैव पृष्ठे पतनात् प्रभाभी, रविभिया भ्राम्यति खे नितान्तम् ॥
इस काल से औरों के रक्षण की आशा ही क्या की जा सकती है जबकि यह अपने माता-पिता को भी नहीं छोड़ता प्रभा इसकी माता है और सूर्य इसका पिता । यह काल सदा उनके पीछे लगा रहता है, इसीलिए यह बेचारा सूर्य भयभीत होकर अपनी पत्नी प्रभा को साथ लिए आकाश में निरन्तर भ्रमण करता रहता है ।
१३. समस्तसन्तापकरं स्वपुत्रं, निभालय रोषारुणवक्त्रपूषा ।
तपश्च शीर्णाहि ममं चकार, जहार कार्यं न निजं तथाऽपि ॥
सभी प्रकार से संताप देने वाले अपने पुत्र काल को देखकर उसके पिता सूर्य ने क्रोध के आवेश में उसके पैर तोड़ डाले, उसे लंगड़ा बना दिया । फिर भी काल ने अपना कार्य नहीं छोड़ा |
१३. मतं तु दूरेऽस्तु रुषा प्रहारात्, स्ववीजिनं हस्तसहस्रपातः । चरीकरीत्यस्तमयं कृतान्तः, कृतघ्नवत्त्वं किमतः परं ही ॥
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पिता की आज्ञा का पालन करना तो दूर रहा परन्तु अपने पिता के सहस्ररश्मिरूप करों से रोके जाने पर भी वह नहीं रुकता और क्रुद्ध होकर अपने पिता को बार-बार अस्त ही करता रहता है। इससे बढ़कर उस काल की क्या कृतघ्नता हो सकती है ?
१४.
अखण्डदोर्दण्डपराक्रमैर्यन्निरस्तसन्न्यस्तसमस्तशत्रुम् ।
हलायुध चक्रधरं हरि च, जहौ न कालस्तदितरे के ||
जिन्होंने अपने अक्षुण्ण भुज-बल से संसार के समस्त शत्रुओं पर विजय पा ली, ऐसे बलदेव, चक्रवर्ती और इन्द्र को भी इस कराल काल ने नहीं छोड़ा तो औरों की तो बात ही क्या ?
१५. तदत्र का मे गणना स्पृहा वा, ग्रसेन्न मां यः समयानभिज्ञः । इदं वदुच्चैर्मृशतीति भिक्षुरलंविलम्बैस्त्वरता विधेया ॥
आत्मन् ! इस कराल काल के समक्ष मेरी क्या गणना और कैसी स्पृहा ? यह अनवसरज्ञ काल पत्नी की भांति कहीं मुझे भी ग्रसित न कर ले ? इस प्रकार गहरा चिन्तन करते हुए भिक्षु ने सोचा, अब दीक्षा में किसी प्रकार का विलम्ब करना उचित नहीं लगता, मुझे त्वरा करनी चाहिए ।
१. शीर्णाहि : - यमराज, काल ( शीर्णां हिर्यन्तकधर्मराजा : - - अभि० २।९८) २. हलायुधः - बलदेव ।