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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
वैद्यों द्वारा अनेक रक्षात्मक उपचार किये जाने पर भी पत्नी की बीमारी दूर नहीं हो पाई और आखिर धर्मराज उसको उठाकर अपनी संयमनी पुरी में ले ही गया। (वह दिवंगत हो गई।) ६. सणात् स्वकान्ताक्षणनं निरीक्ष्य, विरागवेलायितहृधुनीशः । विकल्पयामास स भिक्षुरेवं, यमस्य लीला कुटिलाऽस्ति कीदृक् ।।
अपनी कान्ता की मृत्यु को देखकर भिक्षु का हृदय-समुद्र विराग से आप्लावित हो गया । उन्होंने सोचा-कैसी कुटिल लीला है काल की !
७. कृता किमाशा किमिह प्रजातं, स्थिता हृदाशा हृदये हि लीना। द्रुतं भविष्यामि पवित्रसाध्वी, मृता च सेयं मुकुलाशया हा ! ॥
क्या आशा की थी और क्या हो गया ? हृदय की सारी आशाएं हृदय में ही लीन हो गई। इसने सोचा था कि मैं पवित्र साध्वी बनूंगी और वह इसी भावना में चल बसी ।
८. अहो ! कृतान्तस्य कठोरकोष्ठो, विवेकनि:स्वत्वमसीम यस्मात् । शुभाशयं वा स्वशुभाशयं वा, न वीक्षते सर्वसमानवृत्तः ॥
अहो ! यमराज का हृदय कितना कठोर है ! उसमें विवेक की असीम दरिद्रता है। इसीलिए वह न शुभ आशय वाले को ही देखता है और न अशुभ आशय वाले को ही । वह सबमे समान रूप से बरतता है।
९. तनोत्यपाथ समयातिवाह, जनोऽद्य वा श्वः प्रलपन् विमुग्धः । अपेक्षते कि क्षणमात्रमेष, प्रमृष्टरागः समयोऽपि तं हा ! ॥
संसार में विमूढ मनुष्य 'आज या कल, आज या कल' कहता हुआ अपने समय को व्यर्थ गंवा डालता है। परन्तु क्या यह निर्मोही काल क्षणभर के लिए भी उसकी अपेक्षा करता है ?
१०. अपूर्वमन्धत्वमिहाङ्गभृद् यद्, विवर्तमानं रविनन्दनस्य। कुतूहलं विश्वविनाशि साक्षान्, न वीक्षते वा विपरीतदशीं ॥
इस विश्व में यह एक अपूर्व अन्धत्व है कि मानव विश्व-विनाशी काल की क्रीडा को साक्षात् देखता हुआ भी नहीं देख रहा है और यदि देखता भी है तो विपरीत दृष्टि से। १. क्षणनं–मरण (निस्तहणं विशसनं क्षणनं-अभि ३।३४) २. धुनीशः-धुनी नदी, तस्या ईश:-समुद्रः । ३. रविनन्दन:--धर्मराज ।